व्हेल गेम के युग में गांधी
ब्लू व्हेल चैलेंज गेम इंटरनेट का एक आत्मघाती खेल है। यह खेल प्रतिभागी और खेल के एडमिन या प्रशासकों के बीच खेला जाता है। दूर अदृश्य बैठा एडमिन खेलने वाले को अगले 50 दिनों का, 50 अलग-अलग टास्क पूरे करने को देता रहता है। हर टास्क के बाद हाथ में एक निशान बनाना होता है। खेल के आखिरी दिन खेलने वाले को खुदकुशी करनी होती है और उससे पहले एक सेल्फी लेकर अपलोड करनी होती है। शुरू में आसान टास्क दिए जाते हैं। यदि एक बार गेम खेलना शुरू कर दिया, तो वह इसे बीच में नहीं छोड़ सकता। अगर छोड़ा तो एडमिन आपका फोन हैक कर सारा डिटेल अपने पास रखकर ब्लेकमेल करेगा। जिसमें तरह-तरह की धमकी मिलती रहती है, उसे या फिर उसके माता-पिता को जान से मारने से लेकर अनेक तरह की मानसिक प्रताड़नाएँ शामिल होती हैं। 2016 में इस गेम के निर्माता ‘फिलिप वुडकिन’ को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। उस वक्त तक इस खेल के द्वारा 15 बच्चों ने आत्महत्या की थी। वुडकिन से पुलिस पूछताछ में पता चला कि वह साइकोलॉजी का विद्यार्थी रहा है। वुडकिन ने बताया कि जो अपने जीवन का मूल्य नहीं समझते, वे समाज के लिए कचरा हैं और उनकी सफाई करना जरूरी है।
50 कड़ियों की शृंखला वाले इस जानलेवा खेल के शिकार हमारे देश और दुनिया के भविष्य किशोर और बच्चों ने हजारों की संख्या में आत्मघात कर लिया है और निरंतर यह संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। यह खेल बर्बर आधुनिक बाजारवादी सभ्यता का सबसे घृणास्पद उपउत्पाद है। अगर गौर से देखा जाए तो बाजारवादी दानवी सभ्यता ठीक इसी तरह अनंत कड़ियों वाला गेम पूरी दुनिया को सर्वमूल विनाश के लिए खेलने में रमा है। इस खेल में लोगों की भूख, लालसा और लिप्सा को बढ़ाने के लिए हर चीज की अति तक पहुँचाया जा रहा है। पर्यावरण विनाश के कागार पर है। धर्म, वर्ग, रंग और जाति के नाम पर मानव मानव की निर्ममता से हत्या कर रहा है। अधिकांश देश आंतरिक और बाह्य रूप से युद्ध की स्थिति से गुजर रहे हैं। किसी को अपनी भूसीमाओं के विस्तार की भूख है, किसी को अपने धर्म और संप्रदाय को बंदूक के बल पर फैलाने की भूख, किसी को दूसरे देश के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने की भूख।
बाजार अपने बाहुपाश में सबको जकड़ने के लिए निरंतर उसी के अनुरूप नित नए औजार मुहैया करवा रहा है। जिनमें प्रमुख हैं- आतंकवाद, संप्रदायवाद, नस्लवाद, ड्रग्स तथा अनेक तरह के युद्धास्त्र। बाजार लोगों की शारीरिक, मानसिक, धार्मिक, मनोवैज्ञानिक हर तरह की भावनाओं से खिलवाड़ करता है, वह भौतिक चमक-दमक से शारीरिक, मानसिक लालसा, लिप्सा एवं भूख को जाग्रत करता है। नित नए ढंग से दमित भावनाओं को आँच देता है। इसके आगे हर आदमी अपनी मूल प्रकृति से भटककर अपने घर-परिवार, रिश्ते-नाते, देश-समाज सबसे अलग होकर कुछ भौतिक बनावटी सामानों के साथ विलगाव भोग रहा है, यहाँ तक कि रिश्ते-नातों से परे जाकर शारीरिक शोषण, कर्तव्य एवं संस्कार के नाम पर सिर्फ प्रदर्शन एवं पाखंड, किसी की भी हत्या और सबसे थक-हारकर अंत में इस मायावी आभासी ब्लू व्हेल गेम मे फँसकर आत्मघात करने को मजबूर है।
यह एक सामान्य सी बात है कि जितनी जरूरत है, उतनी आवश्यकता पूरी हो जाए, वहाँ तक तो बाजार काम की चीज है। परंतु पूंजीवादी बाजार की मान्यता है कि आपकी जरूरत क्या है? यह आप तय नहीं कर सकते, यह बाजार तय करेगा, आपको सिर्फ क्रय करना है। आप क्रय करने लायक नहीं हो तो बनो, नहीं बन सकते तो कर्ज लो, कर्ज नहीं चुका सकते तो चोरी करो, डाका डालो, कुछ भी करो। यह सब कैसे करोगे, यह भी बाजार पर छोड़ दो, सबकुछ करने का तरीका और औजार बाजार उपलब्ध करायेगा। आज बाजार सरकार, राजनीतिक वर्ग, धार्मिक, सामाजिक, यहाँ तक कि बौद्धिक वर्ग, मीडिया सब पर हावी है। उसके दबाव में अपने जमीर को गिरवी रखकर बाजार के हाथों खेल रहा है। एक सामान्य आम आदमी किसी भी वादे, समाचार या विचार को सच मानने को तैयार नहीं है। हर सच्चाई और सादगी को बाजार निगलकर अपने स्वार्थ के अनुरूप सबकुछ दिखा-सुना रहा है।
भारतीय सनातन सभ्यता-संस्कृति एवं अनेकों महापुरुषों एवं मनीषियों के ज्ञान को मथकर नवनीत निकालने वाले आधुनिक भारत के सबसे बड़े प्रज्ञा पुरुष महात्मा गांधी इस बाजार व्यवस्था के अनंत कड़ियों वाले गेम को बहुत पहले समझ चुके थे। अपनी जवानी के दिनों में ही ‘हिंद स्वराज’ लिखकर इससे सावधान रहने एवं बचने का मार्ग बतला दिया था। आजीवन उनका हर छोटा-बड़ा कार्य, चाहे वह गुलामी से मुक्ति का अभियान हो या सामाजिक सुधारों के लिए अनथक प्रयास, हर संघर्ष उनका इस राक्षसी बाजार व्यवस्था से बचाने के लिए ही था। उन्होंने बार-बार इस बात पर बल दिया कि ‘यह धरती हरेक की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने की क्षमता रखती है, लेकिन किसी एक की भी लोलुपता या वासना की संतुष्टि नहीं कर सकती।’ सबसे दुःखद बात यही रही कि उनके जीवन में ही उनके अपने लोगों ने उनके विचारों को ठुकरा दिया। उनके मरने के बाद तो दिनोदिन स्थिति बेहद खराब होती गई और आज स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि हम अपनी जमीन, पानी, हवा, परिवार, घर, गाँव, यहाँ तक मानव का सरल-सहज मूल स्वभाव सबकुछ गँवाते जा रहे हैं। एक आभासी डिजीटल दुनिया में हर समय खोए हुए हैं, उसके अंदर कुंडली मारे बैठा बाजार का गुलाम ब्लू व्हेल हमारे विवेक को अपहृत करके सबको अपने इशारों पर नचा रहा है।
यह सही है कि इस राक्षसी बाजार व्यवस्था का जहर आज हमारी जीवन व्यवस्था के रग-रग में समा चुका है। वह काफी हद तक हमारे मूल सहज स्वभाव, प्रकृति के साथ जीने की आदतों से विलग करने में सफल हो गया है। परंतु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिनोदिन विद्रूप होती दुनिया के लिए आज भी गांधी के विचार मुक्ति का मार्ग दिखलाते हुए प्रकाश-स्तंभ की भाँति निर्भय एवं अडिग खड़े हैं। फैसला हमें करना है कि हमें आत्मघात करते हुए ब्लू व्हेल के पेट में समाते जाना है या ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः…’ के गांधी मार्ग पर बढ़ना है। …सबको सन्मति दे भगवान!
संजय कुमार मिश्र
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