यूपीएससी : हिन्दी के पाठ्यक्रम में विद्यापति को शामिल करना असंवैधानिक है।
-डॉ. अमरनाथ
मैथिल कोकिल विद्यापति हमारे जैसे हिन्दी के लाखों पाठकों के सर्वाधिक प्रिय कवियों में से एक हैं. किन्तु आज उन्हें हिन्दी के पाठ्यक्रम में शामिल करने पर सवाल उठ रहे हैं. कारण है कि अब मैथिली, हिन्दी का अंग नहीं बल्कि संवैधानिक रूप से स्वतंत्र भाषा है. इस समय हमारे देश की कुल 22 भाषाएं संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल होकर स्वतंत्र स्थान हासिल कर चुकी हैं और उनका साहित्य अलग- अलग स्वतंत्र रूप से पढ़ा-पढ़ाया जाता है, किन्तु इनमें से एक भाषा मैथिली ऐसी है जो संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के नाते एक ओर संविधान द्वारा प्रदत्त सभी संवैधानिक अधिकारों का उपभोग कर रही है तो दूसरी ओर हिन्दी साहित्य में भी अवैध रूप से शामिल होकर उसके अधिकार क्षेत्र में भी सेंध लगा रही है.
मैथिली को प्रख्यात भाषा वैज्ञानिक हार्नली और सर जार्ज ग्रियर्सन से लेकर सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या और उदयनारायण तिवारी तक ने पूर्वी (हिन्दी) या बिहारी (हिन्दी) के अंतर्गत एक बोली के रूप में शामिल किया है. किन्तु मैथिली के लोग हिन्दी से अलग होने की मांग करते रहे और अंतत: सन् 2003 में श्री अटलबिहारी बाजपेयी की सरकार ने उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया और इस तरह हिन्दी परिवार की एक महत्वपूर्ण सदस्य मैथिली ने हिन्दी से अलग होकर अपना स्वतंत्र घर बसा लिया. मैथिली अब हिन्दी की बोली नहीं, संवैधानिक रूप से हिन्दी से अलग होकर स्वतंत्र भाषा बन चुकी है. इसके बाद स्वाभाविक रूप से मैथिली को और उसके साहित्यकारों को वे सारे लाभ मिलने लगे जो संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं और उसके साहित्यकारों को मिलते हैं. मसलन् संघ लोक सेवा आयोग में मैथिली भाषा और साहित्य को हिन्दी के समानान्तर स्वतंत्र जगह मिल गई और उसे पढ़कर अनेक प्रतिभाशाली युवा आई.ए.एस और आई.पी.एस. बनने लगे. एक तरफ पचास करोड़ जनता द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी का विशाल साहित्य और दूसरी ओर तीन- चार करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली और बिहार प्रान्त के मुंगेर, दरभंगा, पूर्णिया जैसे कुछ जिलों तक सिमटी मैथिली का साहित्य. दोनों के पाठ्यक्रम पर समान अंक.
यू.पी.एस.सी. की मुख्य परीक्षा में हिन्दी के प्रश्न पत्र-1 भाग- इ में हिन्दी साहित्य का इतिहास है, जिसमें अध्ययन के लिए प्रमुख कवियों – चंदबरदाई, अमीर खुसरो और हेमचंद्र के साथ विद्यापति रखे गए हैं. जबकि यू.पी.एस.सी में मैथिली भी हिन्दी के समानान्तर एक स्वतंत्र विषय के रूप में रखी गई है और वहाँ भी प्रश्न पत्र-1 के भाग- इ में भी विद्यापति पाठ्यक्रम में है. एक कवि एक ही परीक्षा के लिए निर्धारित अलग- अलग विषयों के पाठ्यक्रमों में कैसे रखा जा सकता है? यह कहां तक न्यायसंगत अथवा संवैधानिक है?
मैथिली को एक विषय के रूप में चुनकर सिविल सर्विस की परीक्षा पास करने वाले अधिकारियों को मिलने वाली सफलताओं ने भारतीय प्रशासनिक सेवा जैसी देश की सर्वाधिक प्रतिष्ठित सेवा में चोर दरवाजे से प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया है. ऐसे अनेक प्रतियोगी मिल जाएंगे जिन्होंने बी. टेक., बी.ई., एम.बी.ए. या एम.वी.बी.एस. की डिग्री हासिल किया है, किन्तु सिविल सर्विस की परीक्षा में अपना मूल विषय न चुनकर उन्होंने मैथिली चुना है क्योंकि एक ओर मैथिली का पाठ्यक्रम सीमित है और दूसरी ओर उन्हें पता होता है कि मैथिली का प्रश्न पत्र बनाने वाले और उसकी उत्तरपुस्तिकाएं जांचने वाले परीक्षक भी मिथिलाँचल के ही कोई प्रोफेसर होंगे, जिन तक पहुँच न भी हो तो भी परीक्षक और परीक्षार्थी में इतनी समझ तो होगी ही कि वे दोनों ही मैथिल हैं. पिछले वर्षों के परीक्षा परिणाम का अध्ययन किया जाय तो यह तथ्य उजागर हो जाएगा कि मैथिली विषय लेकर परीक्षा देने वाले प्रतियोगी अमूमन सामान्य से काफी अधिक अंक क्यों पाते रहे हैं?
इसी तरह एक ओर हिन्दी के विशाल साहित्य के किसी एक साहित्यकार को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलता है तो दूसरी ओर उतनी ही बड़ी राशि का पुरस्कार मैथिली के भी किसी एक साहित्यकार को मिल जाता है. तरह तरह के पुरस्कारों, अवसरों, सुविधाओं और आर्थिक अनुदानों ने एक ओर हिन्दी के परिवार में फूट डालने का काम किया है तो दूसरी ओर हिन्दी के साथ भीतरघात करके उसे कमजोर करने का. मैथिली का हिन्दी से अलग होकर संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल होने से मैथिली के चंद लेखकों और प्रतियोगियों को भले ही फायदा हुआ हो किन्तु हिन्दी का इससे बहुत नुकसान हुआ है. पहला नुकसान यह हुआ कि हिन्दी की जनसंख्या में से मैथिली की जनसंख्या घट गई. स्मरणीय है कि जनसंख्या सबसे बड़ा आधार है जिसके नाते हिन्दी इस देश की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित है. अगर मैथिली की तरह हिन्दी की दूसरी बोलियां भी अलग होती रहीं तो इस संख्याबल का खत्म होना असंदिग्ध है. जिस दिन यह संख्याबल खत्म हो जाएगा हिन्दी को उसके पद से च्युत करने में अंग्रेजी को एक क्षण भी नहीं लगेगा. मैथिली के अलग होने का ही दुष्परिणाम है कि भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, अंगिका, मगही आदि हिन्दी से अलग होकर संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने की मांग कर रही हैं. प्रभुनाथ सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, संजय निरूपम, अली अनवर अंसारी, योगी आदित्यनाथ, मनोज तिवारी, संजय जायसवाल आदि सांसदों ने समय समय पर संसद में भोजपुरी के लिए मांग की है. पिछले 3 मार्च को बिहार की कैबिनेट ने सर्वसम्मति से इस आशय का एक प्रस्ताव पारित करके भारत के गृह मंत्री को भेजा है.
बहरहाल, आज मैथिली संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होकर एक स्वतंत्र भाषा के रूप में सारी संवैधानिक सुविधाएं ले रही है तो दूसरी ओर दुनियाभर के विश्वविद्यालयों के हिन्दी के पाठ्यक्रमों में, संघ लोक सेवा आयोग, यू. जी. सी की नेट आदि के हिन्दी के पाठ्यक्रमों में मैथिल कोकिल विद्यापति और उनकी पदावली शामिल है. सहज प्रश्न है कि जब मैथिली ने अलग घर बाँट लिया है तो उसके कवि विद्यापति को हिन्दी वाले क्यों पढ़ें ? अब विद्यापति को हिन्दी के पाठयक्रमों में शामिल करना असंवैधानिक है? विद्यापति अब सिर्फ मैथिली के कवि हैं और जहाँ मैथिली का पाठ्यक्रम बना है वहां वे पढ़ाए जाते हैं. क्या मैथिली के पाठ्यक्रमों में तुलसी, सूर, मीरा और कबीर पढ़ाए जाते हैं ?
फिलहाल, मेरी अपनी समझ यह है कि तुलसी, सूर, कबीर, मीरा आदि की तरह विद्यापति भी हमारी हिन्दी के अभिन्न अंग हैं, किन्तु आज जब मैथिली संवैधानिक रूप से हिन्दी से अलग हो चुकी है, तो देश भर के विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागाध्यक्षों, विभागीय शिक्षकों, यू.पी.एस.सी. के अध्यक्ष सहित विभिन्न राज्यों के लोक सेवा आयोगों से जुड़े अधिकारियों, विभिन्न राज्यों की सेट परीक्षा के संयोजकों आदि से हमारा आग्रह है कि वे अपने यहां के हिन्दी पाठ्यक्रमों में संशोधन करें और विद्यापति तथा उनके साहित्य को पाठ्यक्रम में शामिल करने पर पुनर्विचार करें क्योंकि अब हमारे संविधान के अनुसार विद्यापति हिन्दी के कवि नहीं हैं और हमारे लिए हमारा संविधान सर्वोपरि है!
-डॉ. अमरनाथ हिंदी बचाओ मंच के संयोजक हैं. सपंर्क-, ईई-164/402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-91 ट: 9433009898 . नवभारत टाइम्स मुंबई के 7 जून,2017 के अंक से साभार
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