क्या इस बार पास होंगे बिहार के पप्पू
पुष्यमित्र
बीजेपी पप्पू यादव को बिहार में लालू यादव का विकल्प बनाने की कोशिश अक्सरहाँ करती रहती हैं। यह सच है कि पप्पू यादव अपनी जाति के लोगों के बीच खासे लोकप्रिय हैं, खास तौर पर उत्तर बिहार में तो उनके स्वजातीय उनकी बातें करते हुए भावुक हो जाते हैं। मगर यादव जाति के वोटर लालू जी पर उन्हें तरजीह दें ऐसा नहीं होता। उन्हें पप्पू प्रिय हैं, मगर वे उन्हें लालू के साथ देखना चाहते हैं, उन्हें चुनौती देते हुए नहीं। ठीक उसी तरह जैसे बिहार के स्वर्ण नीतीश को पसंद करते हैं, मगर उनका मोदी को चुनौती देना स्वर्णो को नहीं भाता।
बहरहाल, प्रसंग यह है कि एक बार फिर पप्पू यादव को बिहार की राजनीति के केंद्र में लाने की कोशिश की जा रही है। और इस कोशिश को संभवतः नीतीश जी का समर्थन मिला हुआ है। बीजेपी तो है ही। इस बार भी मकसद यही है, पप्पू को लालू जी के विकल्प के रूप में उभारना। तभी सरकारी लाठी से पिटने के बाद पप्पू ने कहा कि लालू जी उनकी हत्या कराना चाहते हैं। मगर एक बार भी नीतीश जी का नाम नहीं लिया।
दरअसल बिहार में एक बार भी पोलिटिकल ब्रेकअप की तैयारियां चल रही हैं। राजनीतिक हलकों में पैठ रखने वाले लोग यह जानते हैं कि नीतीश जी ने फिर से बीजेपी के साथ जाने का मन लगभग बना लिया है और अब वे सिर्फ एक मौके की तलाश में हैं। कि कब राजद की तरफ से कुछ चूक हो और वे महागठबंधन को बाय कह दें। ठीक उसी तरह जब तीन साल पहले उन्होंने एक विज्ञापन की वजह से बीजेपी का भोज कैंसिल कर दिया था और नाता तोड़ लिया था। ताजा खबर है कि तीन साल बाद एक बार फिर से जदयू और बीजेपी का भोज भात का रिश्ता कायम हो गया है।
इस बीच राजद और जदयू में अबोला इस हद तक पहुंच गया है कि नीतीश जो भी कार्यक्रम आयोजित करवाते हैं उनमें राजद वालों को खास तौर पर लालू जी के परिवार वालों को या तो बुलाया नहीं जाता, अगर बुलाया भी गया तो मंच पर बिठाया नहीं जाता। प्रकाश पर्व से लेकर बिहार दिवस तक के आयोजन इसके गवाह हैं और चम्पारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष का जो आयोजन होना है उसमें भी राजद के किसी नेता या मंत्री को शामिल नहीं किया जा रहा।
हालाँकि लालू भी चुप नहीं बैठे हैं। वे जदयू को तोड़ने की कोशिश में हैं। हालाँकि यह थोड़ा मुश्किल काम है। क्योंकि लालू गणित में पिछड़ जा रहे हैं। जदयू और बीजेपी का अंकगणित सरल और स्पष्ट है। ऐसे में कोई विधायक रिस्क लेने को तैयार नहीं है। हाँ, मांझी और कुशवाहा जरूर पाला बदल सकते हैं, क्योंकि दोनों की राजनीति का आधार एंटी नीतीश है। लालू इन्हें तरजीह भी देने लगे हैं।
इसी की काट तलाशने के लिये संभवतः पप्पू यादव को मैदाने जंग में उतारा जा रहा है। विधान सभा की करारी हार के बाद इस जुझारू पार्टी में भी जंग लगने लगी थी उसे झाड़ने की कोशिश हो रही है। ताकि और कुछ नहीं तो लालू जी को कोसने के लिये ही सही एक यादव तो मैदान में दिखे। मगर यह टफ टास्क है। पप्पू इस टास्क को विधानसभा चुनाव में पूरा नहीं कर पाए और फेल हो गए। इस बार पास होंगे या फेल कहना मुश्किल है।
पुनश्च- नीतीश जी एक ही शर्त पर मोदी विरोधी खेमे में रह सकते हैं, अगर आज भी उन्हें कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल अपना नेता और प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दे। अब यह विपक्षियों पर निर्भर है कि वे नीतीश को अपने पाले में रखना चाहते हैं या मोदी के पाले में जाने देना चाहते हैं। (पुष्यमित्र. पत्रकार हैं, यह आलेख उनके फेसबुक टाइमलाइन से साभार)
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