नोट बदलने में कम से कम 4 महीने लगेंगे, न कि 50 दिन

नई दिल्ली. Biharkatha.com| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एकाएक लागू की गई नोटबंदी योजना को लेकर लोगों को 50 दिन का दर्द सहने की सलाह दी है। लेकिन जिस दर से नए नोट वितरित किए जा रहे हैं। यह समयसीमा निहायत ही अपर्याप्त साबित होगा। आखिर क्यों।  वित्त मंत्री द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक अक्टूबर के अंत तक कुल 17,50,000 करोड़ के नोट प्रचलन में थे, जिसका 84 फीसदी या 14,50,000 करोड़ रुपया 500 और 1000 के नोटों के रूप में था, जो अब बेकार हो गए।  वित्त मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक पहले चार दिनों में (10 नबंवर से 13 नबंवर तक) कुल 50,000 करोड़ रुपये के नए नोट (100 रुपये और 2,000 रुपये के) उपभोक्ताओं को जारी किए गए। ये नोट उन्होंने या तो एटीएम से निकाले या अपने एकाउंट से निकाले या फिर बैंक और पोस्टऑफिस जाकर अपने पुराने नोट को बदल कर पाया। इस प्रकार बैंकिंग प्रणाली में कुल 18 करोड़ लेन-देन किए गए हैं। इसके बावजूद लोग एटीएम और बैंक के लाइन में खड़े होते हैं और कैश खत्म हो जा रहा है। यह भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के उस आश्वासन के अनुरूप भी नहीं है जिसमें उसने पर्याप्त नकदी होने की बात कही थी। यह हाल तब है जब आरबीआई के प्रिंटिंग प्रेस ने कुछ दिन पहले से ही नए नोट छापने शुरू कर दिए थे। इसके साथ ही अगर हम यह मान लें कि रोजाना 2,000 रुपये के नोट में रूप में 12,500 करोड़ रुपये की रकम वितरित की जा रही है तो भी वित्तीय प्रणाली में अवैध करार दी गई रकम के वापस पहुंचने में 116 दिन लगेंगे। इसमें यह भी माना गया है कि जितनी रकम अवैध हो चुकी है उन सभी रकम को नए नोटो से बदल जाएगा। केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के अध्यक्ष की 2012 में जारी ‘भारत और विदेश में काले धन से निपटने के उपाय’ की 109 पन्नों की रिपोर्ट में कहा गया था, “लोगों की एक प्रमुख मांग है कि उच्च मूल्य के नोट खासतौर से 1000 रुपये और 500 रुपये के नोट को वापस लिया जाए। लेकिन ऐसा देखा गया है कि रुपये के विमुद्रीकरण से काले धन की समस्या का समाधान नहीं होता। क्योंकि यह बड़े पैमाने पर बेनामी संपत्ति, सर्राफा और आभूषण के रूप में होती है।”
इसमें आगे कहा गया कि ऐसे किसी कदम का उल्टा असर होता है। इनमें नोट छपाई का खर्च का बैंकिंग प्रणाली पर बुरा प्रभाव पड़ता है, खासतौर से ढुलाई के मुद्दों को लेकर। नकदी रकम को लाना-ले जाना एक मुश्किल प्रक्रिया है। विमुद्रीकरण से जनता को असुविधा होती है और दैनिक मजदूरी का वितरण प्रभावित होता है।  इसमें कहा गया था, “पहले भी 1946 और 1978 में विमुद्रीकरण किया गया था। जो कि बुरी तरह विफल रहे थे और 15 फीसदी से भी कम नोट बदलने के लिए आए। इनमें से 85 फीसदी नोट कभी बाहर आए ही नहीं, क्योंकि उनके मालिकों को सरकारी एजेंसी द्वारा कार्रवाई का डर था।” (आईएएनएस)






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