भाजपा के कितने काम आएगा ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष?
ऋतुपर्ण दवे
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दशहरे के मौके पर लखनऊ के ऐशबाग रामलीला कमेटी मंच से ‘जय श्रीराम, जय-जय श्रीराम’ का उद्घोष क्या किया, समाजवादी पार्टी में चल रहा ‘असमाजवाद’ बजाय थमने के उफान लेने लगा। यह कयास भी लगाए जाने लगे कि कहीं भाजपा ने चुनावी एजेंडा तो नहीं तय कर दिया? भाजपा उत्साहित है, तो दूसरी पार्टियों में अब भी अनिश्चितता का माहौल दिख रहा है। इस बीच सपा प्रमुख ने भी साफ कह दिया कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री सरकार बनने के बाद ही तय होगा। यानी अहं का पटाक्षेप होने के बजाय अभी केवल ‘तू बड़ा कि मैं’ का ट्रेलर ही सामने आया है। परिवार के विवाद में उलझी सपा और आयाराम-गयाराम के नफा-नुकसान को आंक रही बसपा के बीच, उम्मीदों का अंकुर पाल, नए सिरे से जोश के साथ आगे बढ़ रही कांग्रेस को एक झटके में ही, तमाम चैनलों के ओपिनियन पोल ने सकते में डाल दिया।
यूं तो राजनीति के जानकार, उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की फितरत के मुताबिक, इस बार बहनजी की बढ़त देख रहे थे लेकिन दशहरे से, एकाएक बदले कई राजनीतिक घटनाक्रमों से भाजपा बेहद उत्साहित है। होना भी चाहिए, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महज एक धार्मिक आयोजन में राम नाम उत्तर प्रदेश में भाजपा की वैतरणी को पार लगाने के लिए काफी होगा। चूंकि प्रधानमंत्री ने बहुत ही सधे हुए तरीके से मंजे राजनीतिज्ञ जैसा तीर अपने तरकश से चलाया जो सटीक जा बैठा। परिणामस्वरूप विरोधी दलों की स्थिति ‘उगलत लीलत पीर घनेरी’ जैसी हो गई है। लेकिन इस बीच विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के नेता प्रवीण तोगड़िया का ट्वीट ‘नारा लगा दिया है, तो संसद में कानून पारित कर तुरंत भव्य राम मंदिर भी अयोध्या में बना ही दें’ ने नई सरगर्मी जरूर पैदा कर दी है। गौरतलब है कि 1990 के दशक में ‘जय श्रीराम’ का नारा इतना लोकप्रिय और प्रभावी हुआ कि भाजपा केंद्र तक जा पहुंची। 27 बरस बाद, प्रधानमंत्री द्वारा फिर से ‘जय श्रीराम’ का नारा दोहराना जरूर कोई दूरगामी संकेत है। किस हद तक भविष्य में इसका सहारा लिया जाएगा, पार्टी जाने। फिलहाल यह केवल कयासों का अंक गणित है।
यकीनन, भाजपा प्रधानमंत्री के जय श्रीराम उद्घोष का फायदा उठाएगी। लेकिन अभी चुनाव बहुत दूर है। तब तक गंगा में काफी पानी बह चुका होगा। एक बात और तय है कि फिलहाल सत्तासीन, समाजवादी कुनबे में मचा असमाजवाद, पार्टी के लिए ही हितकर नहीं रहने वाला है। इसे सपा सुप्रीमों भी बखूबी समझ रहे हैं और उत्तर प्रदेश की जनता भी। ऐसे में आगे के चुनावी समीकरण क्या गुल खिलाएंगे, इस पर साफ-साफ कहना जल्दबाजी होगी। हां, ओपिनियन पोल को लेकर भाजपा की खुशफहमी जरूर बढ़ी होगी, बढ़नी भी चाहिए। लेकिन पुराने कई सर्वेक्षणों का हर्ष देखकर इतना तो कहा ही जा सकता है कि इन पर ही भरोसा करना ठीक नहीं। भाजपा मान रही है कि उसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में जबरदस्त बढ़त दिख रही है, क्योंकि यहां पर 167 सीटें हैं, जिनमें उसको 33 फीसदी वोट मिलने की उम्मीद है। वहीं, यह भी तो सोचना होगा कि मध्य क्षेत्र से 81 विधानसभा सीटों में सपा की स्थिति को कैसे कमतर आंका जा सकता है। यहां पर महज 1 प्रतिशत वोटों के अंतर से सपा और बसपा में घमासान माना जा रहा है। सपा को 29 और बसपा को 28 प्रतिशत वोट मिलने की संभावना दिख रही है।
इसी तरह, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की बढ़त निश्चित दिख रही है। इसके पीछे कई फैक्टर काम करते नजर आ रहे हैं। एक तो कैराना से कथित रूप से हिंदुओं का पलायन। दूसरा, मुजफ्फरनगर की सांप्रदायिक हिंसा और बुलंदशहर में बलात्कार की घटना ने वहां के जनमानस को अभी तक मर्माहत कर रखा है। लेकिन बुंदेलखंड के विकराल सूखे की त्रासदी भी चुनावी भूमिका में होगी। गौरतलब है कि केंद्र ने यहां पर ट्रेन के जरिए टैंकरों से पानी भेजकर मरहम लगाकर, मर्म समझने का संदेश दिया। हां, कांग्रेस जरूर अपने वजूद को तलाशती नजर आ रही है। यह सच है कि कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश अभी दूर की कौड़ी है। हो सकता है कि इस कारण कांग्रेस भी अपनी कोई नई चुनावी रणनीति मे लगी हो। लेकिन कांग्रेस के खेवनहार टीम प्रशांत किशोर से ही कई कांग्रेसी नाराज दिख रहे हैं।
यह बात सार्वजनिक तौर भी सामने आ चुकी है। राहुल का लखनऊ में कार्यकर्ता सम्मेलन तो सोनिया गांधी का वाराणसी का रोड शो और फिर राहुल की किसान यात्रा और खाट पर चर्चा की सफलता से उत्साहित कांग्रेसी मानते हैं कि इससे पार्टी में नई जान आई है, लेकिन फिर भी टीम प्रशांत को पचा नहीं पा रहे हैं। ऐसे में यह तो तय है कि कांग्रेस के अंदर भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं दिख रहा। जाहिर है इसका भी फायदा भाजपा जरूर लेगी। कहीं भाजपा के बढ़ते प्रभाव से उप्र में चुनावों से पहले, धर्मनिरपेक्षता के नाम और दलित-अल्पसंख्यकों को लुभाकर सत्ता तक पहुंचने के नए गठबंधन की कोशिशें न शुरू हो जाए। बहरहाल, उत्तर प्रदेश में चुनाव की सरगर्मी जरूर है, पर चुनाव अभी दूर है। कहते हैं, राजनीति में कुछ भी अछूत नहीं होता। क्या पता, नित नए बन रहे समीकरणों और उभर रही रणनीतियों के बीच कब कौन सी गोलबंदी हो जाए और बाजी मार ले जाए। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)
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