पाकिस्तान के प्रति संयम के साथ कूटनीति
ललित गर्ग
कश्मीर के उड़ी में सैन्य ठिकाने पर हुए आतंकवादी हमले के बाद जब पूरे देश में आक्रोश है और बहुत सारे लोग इसे युद्ध की स्थिति के रूप में देख रहे हैं, जनभावना ईंट का जबाव ईंट से देने के पक्ष में है। इन स्थितियों में सभी देशवासियों की नजरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बड़ी और निर्णायक घोषणा की अपेक्षा से लगी थी। लेकिन मोदी के केरल भाषण में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। उन्होंने केरल के अपने भाषण से स्पष्ट कर दिया कि भारत का दिल बड़ा है और वह युद्ध के पक्ष में नहीं है। इस बयान में संयम का पाठ भले ही प्रतीत हो, लेकिन इसमें कूटनीति भी झलकती है। जब दुश्मन की उम्र लम्बी हो जाए तो उससे दोस्ती कर लेनी चाहिए-इस एक पंक्ति में फलसफा है। कूटनीति है। अहिंसा है। जीवन का सत्य है। दोस्ती रोग से भी की जाती है, जब वह लाईलाज हो जाता है। बुढ़ापे से भी की जाती है, क्योंकि वह आकर जाता नहीं। ये सब दुश्मन हैं और दुश्मन से दोस्ती करने के लिए हिम्मत चाहिए, विवेक चाहिए, संयम चाहिए, धैर्य चाहिए। अन्यथा कायरता ही सिद्ध होती है।
प्रधानमंत्री ने ऐसे ही विवेक के साथ-साथ कूटनीति का परिचय पहले भी दिया और इन आक्रामक हालातों में पुनः दिया है। इसकी गहराई को, इसकी दूरदर्शिता को समझने में समय लग सकता है। लेकिन यह एक सोची-समझी रणनीति का ही हिस्सा है। यही कारण है कि मोदी अपने गुस्से को पीते हुए पाकिस्तानी जनता से अपील की कि वह अपने वजीरे-आलम से पूछे कि वे इस तरह आतंकवाद को बढ़ावा देकर क्या हासिल करना चाहते हैं? क्यों पाकिस्तान के आम लोगों की जरूरतों, उनके सपनों, उनकी तकलीफों की तरफ ध्यान देने के बजाय अस्थिरता के माहौल को प्राथमिकता दी जा रही है? क्यों जनता के हितों को ताक पर रखा जा रहा है? अभी तक जब भी पाकिस्तान की तरफ से भारत पर कोई आतंकी हमला हुआ, भारत सरकार पाकिस्तान के हुक्मरान, वहां की सेना को सीधा निशाना बनाती रही है। लेकिन जनता को पहली बार झकझोरा गया है। उनकी सोयी संवेदनशीलता को जगाने के लिये बिगुल बजाया है। क्योंकि शांतिप्रिय लोग कहते हैं कि युद्ध केवल घाव देता है, आखिर तो टेबल पर बैठना ही होता है। शांति को मौका देने की यह बात किससे कहीं जाये? उनसे जो शांति चाहते हैं या उनसे जो शांति भंग कर रहे हैं? पाकिस्तान की जनता शायद कभी युद्ध नहीं चाहती, और वह जो चाहती है वहां की हुक्मरान वह सब देने में नाकाम सिद्ध हो रहे हैं, इसलिये अपनी नाकामी को ढंकने के लिये वह आतंकवाद का सहारा लेती है। पाकिस्तान की जनता के दिलों में भारत के लिये जहर पैदा किया हुआ है, वह उसके सहारे आतंकवाद को जायज ठहराने की भी नाकाम कोशिश कर रही है। पाकिस्तान की जनता की मानसिकता को मोदी ने समझा है और उन्होंने पाकिस्तानी अवाम का आह्वान किया। उड़ी हमले के बाद सबका ध्यान प्रधानमंत्री की तरफ लगा हुआ था कि वे इस घटना पर क्या प्रतिक्रिया देते हैं। इस बीच लगातार रक्षा मंत्रालय, सुरक्षा सलाहकार और सेना प्रमुखों के बीच विचार-विमर्श चले। पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति पर विचार किया गया। इसमें कई आक्रामक बयान भी आए और समूचा देश द्वंद्व की स्थिति में श्री मोदी पर नजरे लगाए हुए था, उनके बयान पर सबकी नजर लगी हुई थी। केरल में भाजपा कार्यकारिणी की बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के प्रति जो रुख जाहिर किया उससे उन्होंने अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने भी भारत के शांतिवादी एवं उदारवादी रवैये का इजहार किया। इससे यही संदेश गया है कि भारत युद्ध के पक्ष में नहीं है। अब आतंकवाद और अलगाववाद के विरुद्ध हमें नये समीकरण खोजने होंगे और पाकिस्तान की इच्छा का व्याकरण समझना होगा। वहां के हुकूमत और उनसे पोषित और पल्लवित आतंकवादी सिर्फ शांति की अपील से हथियार नहीं डालेंगे। यदि यह सब इतना आसान होता बार-बार विश्व स्तर पर निराशा एवं हार को झेलने के बाद वे कभी के हथियार डाल चुके होते। युद्ध भी इस समस्या का समाधान दिखाई नहीं देता। युद्ध एक आवश्यक मजबूरी है। आज जीवन में भी बहुत कुछ आवश्यक मजबूरियां हैं। जिनसे संघर्ष न करके हम उन्हें अपने जीवन का अंग मान कर स्वीकार कर लेते हैं। पर यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है। यह सब जानते हुए हमें सभी समीकरणों पर सोचना होगा। प्रधानमंत्री ने भी समग्रता से चिन्तन के बाद ही पाकिस्तान की जनता की संवेदनाओं को ललकारा है। जिस तरह पंद्रह अगस्त के भाषण में जब उन्होंने बलूचिस्तान में हो रहे मानवाधिकारों के हनन का जिक्र किया था तो उसका गंभीर असर हुआ। बागी बलूच नेताओं ने खुल कर भारत की सराहना की और पाक हुक्मरानों पर हमले किए थे। पाकिस्तान भी असहज हो उठा था। छिपी बात नहीं है कि पाकिस्तान की अवाम वहां के हुक्मरानों, कट्टरपंथी नेताओं और सेना की ज्यादतियों से परेशान है।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा के ताजा अधिवेशन को संबोधित करते हुए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन और सेना की ज्यादतियों का जिक्र बार-बार किया, पर यह कोई नई बात नहीं है। शायद ही किसी साल महासभा के सत्र में पाकिस्तान के प्रतिनिधि ने यह राग न छेड़ा हो। कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की कोशिश दोहराई गयी। मगर शरीफ के इस प्रयास का क्या हश्र हुआ इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की-मून अपने संबोधन में सीरिया के संकट और फिलस्तीन मुद््दे से लेकर शरणार्थी समस्या तक बहुत-सी चीजों पर बोले, पर उन्होंने एक बार भी कश्मीर का जिक्र नहीं किया। पाकिस्तान की जनता भी अपने देश की अंतरराष्ट्रीय दुर्दशा को महसूस करती होगी। इसलिये श्री मोदी के बयान का वहां भी असर होना आतंकवाद की समस्या के समाधान की दिशा में कोई माइलस्टोन साबित हो सकता है।
हालांकि उड़ी हमले के बाद जो लोग भारत की तरफ से पाकिस्तान को कड़ा संदेश दिए जाने के पक्ष में थे उन्हें प्रधानमंत्री के ताजा बयान से निराशा हुई होगी। पर इसे पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति के रूप में देखें तो इस बयान का संदेश दूर तक जाता है। प्रधानमंत्री ने एक बार फिर बलूचिस्तान, पाक अधिकृत कश्मीर और गिलगित का उल्लेख किया। सब जानते हैं कि पाकिस्तान के हुक्मरान भारत के साथ तनावपूर्ण माहौल बनाए रख कर अपने यहां के लोगों का ध्यान गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी जैसे मुद्दों से भटकाए रखना चाहते हैं। ऐसे में अगर वहां के लोग पाकिस्तान सरकार की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने लगें, मांग करने लगें कि उन्हें युद्ध नहीं, विकास चाहिए, तो पाकिस्तानी हुक्मरान की नींद खराब हो सकती है।
आज पाकिस्तान के सम्मुख संकट उत्पन्न हुआ क्योंकि वहां सब कुछ बनने लगा पर राष्ट्रीय चरित्र नहीं बना और बिन चरित्र सब सून……..। अहिंसा और शांति चरित्र के बिना ठहरती नहीं, क्योंकि यह उपदेश की नहीं, जीने की चीज है। पाकिस्तान को उन्नत चरित्र देने और जनता का जीवन उन्नत बनाने वाले वहां गिनती के लोग हैं जिन्हें इस स्थान पर रखा जा सकता है। पर हल्दी की एक गांठ को लेकर थोक व्यापार नहीं किया जा सकता। इसलिये पाकिस्तान में शांतिवादी लोगों को संगठित होने की जरूरत है।
न अहिंसा आसमान से उतरती है, न शांति धरती से उगती है। इसके लिए पूरे राष्ट्र का एक चरित्र बनना जरूरी होता है। वही सोने का पात्र होता है, जिसमें अहिंसा रूपी शेरनी का दूध ठहरता है। वही उर्वरा धरती होती है, जहां शांति का कल्पवृक्ष फलता है। पाकिस्तान में कहा है शांति की बात, अहिंसा की बात, सह-अस्तित्व की बात। उनके यहां इनकी कल्पना करना अंधेरे में काली बिल्ली खोजने जैसा होगा, जो वहां है ही नहीं। नरेन्द्र मोदी ने ऐसा ही कुछ टटोलने की कोशिश की है, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय भी भारत-पाक सीमा के कुछ रास्ते खोल कर यही प्रयास किया गया था कि दोनों मुल्कों के लोग आपस में मिलें-जुलें और जानें कि सीमा पर तनाव के माहौल से आखिरकार किसका नुकसान हो रहा है। पर पाकिस्तान को वह रास नहीं आया और आवाजाही रुक गई। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने पाकिस्तानी हुकूमत की असलियत खुल चुकी है, अब जरूरत उसे अपने ही घर में घेरने की है। प्रधानमंत्री ने इसी रणनीति के तहत, पूरे संयम के साथ अपनी कूटनीति को उजागर किया है।
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