गयाजी में श्राद्ध के साथ बरस रहा धन!
200 करोड़ रुपए का होता है कारोबार, 17 दिन होती है दिवाली जैसी
कमलेश कुमार. गया।
बिहार के गया के लोगों के लिए सालभर में 17 दिन दिवाली जैसे होते हैं। इन दिनों आपको यहां ढूंढने से भी कमरा नहीं मिलेगा। इन 17 दिनों यानी पितृ पक्ष में ही यहां के लोग इतनी कमाई कर लेते हैं कि करीब छह महीने इन्हें सैलानियों की कमी नहीं महसूस होती है। रिसेप्शन पर टंगे होते हैं इन दिनों गया में करीब हर होटल के बाहर एक तख्ती टंगी नजर आएगी। उस पर लिखा होगा-ह्ययहां डिस्काउंट बंद है। इन दिनों यहां आसानी से न होटल में रूम मिलेंगे, न धर्मशालाओं में जगह। सभी छोटे-बड़े होटलों के रिसेप्शन पर ह्यरूम खाली नहीं हैंह्ण के बोर्ड टंगे हैं। हालांकि, कमाई देखते हुए कुछ होटलों में एक्स्ट्रा चार्ज के साथ एडिशनल बेड का इंतजाम हो जाता है। कई लोग तो प्रतिदिन के हिसाब से लोगों को ठहरने के लिए अपने घरों में भी कमरे दे देते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि ये गया में सबसे बड़े त्योहार का वक्त है। जी हां, पितृ पक्ष में देश में हर कहीं शुभ कार्य वर्जित माने जाते हैं, वहीं गया इसे त्योहार की तरह मनाता है।- यहां के लोग साल के 12 महीने इन दिनों का इंतजार करते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है कारोबार। – छोटी-सी दुकान चलाने वाले से लेकर बड़े होटलों वाले हों या ठेले पर सामान बेचने वाले, सबको इस वक्त का इंतजार होता है। इस दौरान बेरोजगार भी छोटा-मोटा सामान बेचकर अच्छी कमाई कर लेते हैं। पितृ पक्ष के दौरान 150 से 200 करोड़ रुपए तक का कारोबार होता है। इस दौरान देश-दुनिया से करीब 5 लाख लोग यहां आते हैं।
इन दिनों शहर भी साफ-सुथरा हो जाता है। सड़कों की मरम्मत से लेकर बिजली-पानी, ड्रेनेज सारे इंतजाम चाक-चौबंद दिखेंगे। पितरों के उद्धार के लिए होने वाले कर्मकांड में जौ का आटा, काला तिल, पूजा की अन्य सामग्री, कुश, पीतल, फूल, स्टील, मिट्टी के बर्तन, धोती, साड़ी, गमछा, फल, मिष्ठान, अगरबत्ती, धूप, घी आदि का इस्तेमाल किया जाता है। सबसे ज्यादा बिक्री इन्हीं की होती है। हर दो कदम पर इनकी दुकानें सजी रहती हैं। डेढ़ सौ से ज्यादा गुमटी-ठेले और दुकानें होने के बावजूद सभी पर भीड़ नजर आएगी। कोलकाता से आने वाले फूल का मार्केट भी बढ़ जाता है।
गया की और भी कई पहचान
मोक्ष की गली गयाजी से ही गुजरती है, लेकिन इस शहर की और भी कई पहचान हैं। इसी शहर ने गायकी की दुनिया को गुलाबबाई दीं। जद्दनबाई भी गया में आकर रहीं। इसी शहर से सटा ईश्वरीपुर गांव है, जिसे कलाकारों का गांव कहते हैं। पास में पथरकट्?टी गांंव है, जहां पत्थर को तराशकर मुहब्बत और इबादत करने वाली मूर्तियां बनाने वाले लोग रहते हैं। पास ही कनेर है। पीतल के कारोबार के लिए मशहूर। मानपुर भी है, कभी इसकी तुलना मैनचेस्टर से होती थी। मानपुर में ही पटवा टोली है। वही पटवा टोली जहां से हर साल ढेरों आईआईटियन निकलते हैं।source with thanks from bhaskar.com
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