सोशल मीडिया का सामाजिक दायरा
तकनीकी विकास के हर दौर में मीडिया का सत्ता और सरकार से अहम रिश्ता रहा है। भारत में अंग्रेजों के शासनकाल के समय प्रिंट मीडिया यानी प्रेस की भूमिका का जिक्र हो या अंग्रेजों के जाने के बाद दूरदर्शन और आकाशवाणी के जरिए सरकारी योजनाओं व नीतियों का प्रचार प्रसार की बात हो, मीडिया सरकार की नीतियों व योजनाओं को व्यापक लोगों तक पहुंचाने में अहम योगदान करती रही है। इसमें निजी व सरकारी दोनों ही तरह की मीडिया शामिल रही है। सरकार की तरफ से भी मीडिया के साथ रिश्ता कायम रखा जाता है। अलग-अलग मीडिया माध्यमों का अलग-अलग समय में सरकार के साथ गहरी साझेदारी का इतिहास है। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक के बाद अब आॅनलाइन मीडिया ने समाज में अपनी जगह पकड़ मजबूत करनी शुरू कर दी है। इसे भारत में सोशल मीडिया के प्रसार के रूप में देखा जा सकता है। साथ ही सरकार के स्तर पर भी आॅनलाइन मीडिया खासतौर से सोशल मीडिया व नेटवर्किंग साइटों को प्रोत्साहित करने की नीति दिख रही है। इस अध्ययन में सोशल मीडिया और सरकार के रिश्ते और उसके व्यापक समाज पर प्रभाव का मूल्यांकन किया गया है।
विजय प्रताप ( आईआईएमसी से पत्रकरिता का अध्ययन किया। मीडिया के शोधार्थी और मासिक शोध पत्रिका जन मीडिया / मास मीडिया के सहायक संपादक हैं।)
संचार के विकास का रिश्ता उसके इस्तेमाल करने वाले सामाजिक वर्ग से जुड़ा है। इतिहास में संचार के विकास पर नजर डाले तो यह पाते हैं कि उन संचार तकनीकों को ज्यादा जल्दी स्वीकारोक्ति मिल गई, जिन्हें समाज के नेतृत्वकारी तबके ने इस्तेमाल किया। जर्मनी के सुनार जॉन गुटनबर्ग ने 1445 ईं के आस-पास छपाई की तकनीक विकसित की। इससे अखबारों, पर्चों और इश्तेहार का प्रकाशन आसान हो गया। उस समय तात्कालिक राजनीति पर वर्चस्व रखने वाली शक्तियों ने इसे इस्तेमाल और परिष्कृत किया। धार्मिक प्रचार में लगे संगठनों ने अपने वर्चस्व को बढ़Þाने के लिए छापेखाने का इस्तेमाल किया। लेकिन अखबार, पर्चे या किताबें समाज के हर वर्ग के इस्तेमाल की चीज नहीं थीं। पर्चे और अखबार में छपी सूचनाओं को पढ़ने के लिए शिक्षित होना जरूरी था। अखबारों को खरीद पाने के लिए उसके दाम का भुगतान कर पाने में सक्षम होना जरूरी था। यानि इन माध्यमों के जरिए समाज का एक छोटा सा हिस्सा आपस में संवाद करते था और उनकी बातें बाकी लोगों तक धीरे-धीरे रिस कर पहुंचती थीं।
इस तरह से अखबार और प्रिंट माध्यम ने अपना एक वर्ग तैयार कर लिया। राजनीतिक सत्ता ने इस माध्यम के उच्चवर्गीय चरित्र को तब तक यथासंभव कायम रखा जब तक की उच्चवर्ग के लिए दूसरी संचार तकनीक नहीं आ गई। प्रिंट के बाद टेलीफोन(1876) का अविष्कार हुआ और जल्द ही यह उच्च शहरी तबके, सरकारी कामकाज और व्यापारिक कामों में इस्तेमाल होना शुरू हो गया। रेडियो(1907) का इस्तेमाल अमेरिका की जल सेना (नेवी) ने शुरू किया और फिर यह निजी रेडियो क्लबों से होते हुए आम लोगों तक संचार का माध्यम बना। टेलीविजन(1927) को भी कई सालों तक सेट और लाइसेंस या सब्सक्रिप्शन फीस के भुगतान ने इसे खास वर्ग तक सीमित किए रहा। संचारविद हरबर्ट आई.शीलर ने अपनी पुस्तक ह्लसंचार माध्यम और सांस्कृतिक वर्चस्वह्व में उपग्रह संचार की उत्पति के बारे में कुछ यूं टिप्पणी की है- ह्लउपग्रह संचार का मामला बड़ा शिक्षाप्रद है। सबसे आक्रामक अमरीकी पूंजीवाद के एक छोटे समूह के मन में यह खयाल आया। उन्हीं लोगों ने इस पर शोध कराया और उपग्रह का निर्माण हुआ। उपग्रहों को दुनिया के पैमाने पर संचार तंत्र के रूप में खड़ा किया गया जिससे अमरीकी औजार निमार्ताओं, इलेक्ट्रॉनिक निगमों, सैन्य संस्थानों तथा सामान्यतया विज्ञापन और व्यापारिक समूहों को लाभ हुआ।1
मौजूदा परिदृश्य :
2014 के आम चुनावों के बाद नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार के गठन के तत्काल बाद ही संपादकों के संगठन एडीटर्स गिल्ड आॅफ इंडिया ने बयान जारी कर कहा कि मीडिया को सरकार के मंत्रालयों तक पहुंचने और खबर करने में रुकावट डाली जा रही है।
गिल्ड ने सरकार से मीडिया और सरकार के बीच रुकावटों को खत्म करने की अपील की गई। इससे पहले सरकार की तरफ से सभी मंत्रालयों को यह निर्देश दिया गया था कि कोई भी अधिकारी बिना अनुमति के मीडिया से बातचीत या कोई खबर साझा नहीं करेगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक के संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी मार्क जुकरबर्ग से दिल्ली में सार्वजनिक मुलाकात की और अपने डिजीटल इंडिया कार्यक्रम के बारे में चर्चा की।
संचार एवं सूचना प्रद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अपने मंत्रालय के अधिकारियों को फेसबुक के साथ मिलकर फेसबुक की परियोजनाओं पर गंभीरता से काम करने के निर्देश दिए।
नई सरकार बनने के बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि नरेंद्र मोदी ने सभी मंत्रियों को सोशल मीडिया के जरिए लोगों से सक्रिय रूप से जुड़ने के लिए कहा है। मंत्रालयों को सोशल मीडिया पर एकांउट खोलने और उस पर लोगों से जुड़ने तथा उनके सवालों के जवाब देने को कहा गया। संसद में सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने बताया कि मंत्रालय के अंतर्गत न्यू मीडिया विंग खोला गया है और सभी मंत्रालयोंविभागों को सोशल मीडिया पर सक्रियता के लिए इसका इस्तेमाल करने को कहा गया है। 11 जुलाई 2014 को दिल्ली स्थित राष्ट्रीय मीडिया केंद्र में सभी मंत्रालयों के अधिकारियों का सोशल मीडिया के इस्तेमाल के लिए उन्मुखीकरण कार्यशाला का आयोजन किया गया।
यह घटनाएं भारत में मीडिया के स्तर पर बदलती नीति की तरफ इशारा करती हैं। नीतियों में यह बदलाव केवल सरकार के स्तर पर लिया गया फैसला नहीं है, बल्कि एक नए माध्यम के तौर पर सोशल मीडिया को स्थापित करने का यह राजनीतिक फैसला है। राजनीतिक तौर पर वर्चस्व कायम रखना और समय के अनुसार माध्यम का चुनाव एवं उसका विस्तार एक दूसरे से जुड़े होते हैं।
संसदीय लोकतंत्र का ढांचा मतदाताओं से जुड़कर तैयार होता है। लोकतंत्र में मताधिकार ही सत्ता की दिशा तय करते हैं। भारत को दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र के रूप में प्रचारित किया गया है। भारत में 14वीं लोकसभा चुनाव के समय चुनाव आयोग ने 81,45,91,184 मतदाताओं को सूचीबद्ध किया। चुनाव के दौरान ए मतदाता अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर अपनी पसंद के राजनीतिक दल व प्रतिनिधि को सत्ता सौंपते हैं। समझा जाता है कि मतदाता उस व्यक्ति या दल को चुनता है जो उनके हित में काम करे। इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के जरिए चुनी गई सरकारों से उम्मीद की जाती है कि वो देश सभी जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र के लोगों से बिना किसी भेदभाव के उनके कल्याण के लिए काम करेगी। इससे मजबूत लोकतंत्र के निर्माण की उम्मीद बंधती है।
भारत में सोशल मीडिया व इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों से यहां के मतदाताओं के बारे में कोई साफ-साफ नजरिया बनाने में मदद नहीं मिलती है। भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों का चरित्र वर्चस्ववादी है। इसमें शहरी, युवा और पुरुष वर्चस्व साफ-साफ देखा जा सकता है। बहुसंख्यक ग्रामीण और अन्य आयु वर्गों की आबादी इस मीडिया का इस्तेमाल करने वालों के दायरे से बाहर हैं। इसे तालिका में दिए गए आंकड़ों के जरिए समझा जा सकता है।
भारत में मोबाइल व इंटरनेट के जरिए सोशल मीडिया की पहुंच तेजी से बढ़ रही है, लेकिन अभी भी बहुत बड़ी आबादी इस माध्यम से दूर है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक 24.3 करोड़ लोग यानि करीब 19 प्रतिशत इंटरनेट उपभोक्ता हैं, जिसमें करीब 10.6 करोड़ लोग सक्रिय उपभोक्ता हैं। यह भारत की आबादी का महज 8 फीसदी हिस्सा है। मोबाइल की पहुंच भारत की 70 फीसदी आबादी तक है लेकिन मोबाइल पर सक्रिय रूप से इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या महज 15 फीसदी है, और जब मोबाइल पर सक्रिय रूप से सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों की बात आती है तो यह संख्या और कम होकर केवल 7 फीसदी रह जाती है। ब्रॉडबैंड की पहुंच भारत में 4.9 फीसदी लोगों तक है।
भारत में अभी भी 69 फीसदी आबादी यानि 88.90 करोड़ लोग गांवों में रहते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के गांवों में 5.9 करोड़ लोग ने अपने जीवन में कम से कम एक बार इंटरनेट का इस्तेमाल किया है। 4.9 करोड़ लोगों ही सक्रिय रूप से इंटनरेट का इस्तेमाल करने वाले हैं।6 एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक केवल 19 प्रतिशत ग्रामीण घरों में व 12 प्रतिशत के मोबाइल में इंटरनेट की पहुंच है। बाकी कुल ग्रामीण आबादी के आधे से ज्यादा लोगों (54%) को इंटरनेट तक पहुंचने के लिए 10 किलोमीटर तक चलकर साइबर कैफे जाना पड़ता है। ग्रामीण पृष्टभूमि के इंटरनेट उपभोक्ता इसका इस्तेमाल मुख्यत: मनोरंजन (75%), संचार (56%), आॅनलाइन सेवाओं(50%), ई-कॉमर्स (34%), सोशल नेटवर्किंग (39%),आॅनलाइन वित्तिय लेनदेन (13%), ग्रामीण जरूरतों (16%) के लिए करते हैं।7 ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों के लिए भाषा एक बड़ी रुकावट के रूप में देखी गई है। ऐसे इलाकों के ज्यादातर उपभोक्ता इंटरनेट का इस्तेमाल करते समय किसी ना किसी की मदद लेते हैं।
लोकतंत्र और संचार-प्रचार का रिश्ता
लोकतांत्रिक प्रणाली में सरकार और आम लोगों के बीच संवाद कायम रखने के लिए संचार और जनसंचार माध्यमों की जरूरत होती है। प्रशासन में लोगों से संचार का मकसद उनकी जरूरत के अनुरूप नीतियों का निर्माण और नीतियों/योजनाओं के प्रति आकर्षित करना होता है। विकासशील देशों में आम जन और सरकार के बीच संचार किस तरह से हो इस पर पहले काफी बहस हो चुकी है। भारत में आजादी के बाद संचार के महत्व पर काफी विमर्श हुआ। प्रसिद्ध संचारक व समाजशास्त्री पी.सी. जोशी ने अपने एक भाषण में कहा है कि जीवन के हर क्षेत्र में सूचना अहम जानकारी होती है, जैसे कि उत्पादन, शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण, नियंत्रित पुनर्उत्पादन और बाल कल्याण आदि-आदि में। आम जनता की इस अहम जरूरत को कई बार छद्म संचारक, बिचौलिए और मध्यस्थ द्वारा पूरा किया जाता है जो कई बार इस स्थिति का फायदा उठाते हैं और अपने हितों के लिए उनका शोषण करते हैं। संचार की कमी की वजह से गरीबों के लिए विकास पर खर्च किए जाने वाले धन और संसाधनों का बंदरबाट होता है।ङ्घ संचार को सामाजिक न्याय और मानव जीवन को समृद्ध करने वाले राष्ट्रीय विकास को प्रोत्साहित करने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
दुनिया में संचार के क्षेत्र में असमानताओं का अध्ययन करने के लिए यूनेस्को द्वारा गठित मैकब्राइड कमीशन ने भी अपनी रिपोर्ट में आम आदमी के लिए संचार की जरूरत पर बल दिया गया है। संचार का अधिकार, बुनियादी इंसानी हक के रूप में उभरा है। जिसका मतलब है कि लोगों के पास मौका है कि वो संचार नीति को प्रभावित कर सकें। एक बड़े और विविधतापूर्ण देश में संचार व्यवस्था को जवाबदेह और जिम्मेदार व्यवस्था को तौर पर काम करना चाहिए। इसमें इतनी जगह हो कि जहां समाज के हर तबके के लोग अपनी जरूरतें और बातें रचनात्मक लोगों के सामने रख सकें और नीति और कार्यक्रम बनाने में योगदान कर सकें।
आजादी के बाद सरकार चलाने वालों ने दो तरह के संचार माध्यमों का प्रयोग किया। इसमें आम जनता के बीच प्रचार के लिए पारंपरिक माध्यमों पर जोर दिया गया। जबकि समाज के ऊपरी तबके से संवाद व संचार के लिए उन माध्यमों का इस्तेमाल किया गया जो उस वक्त के प्रभावशाली माध्यम थे, मसलन अखबार व रेडियो। समाज के प्रभावशाली तबके के बीच संचार की सामग्री आम जन के बीच प्रचार की सामग्री से अलग होती है। प्रभावशाली तबके को केवल यह बताना होता है कि सरकार क्या-क्या कर रही है, जबकि आम लोगों के बीच योजनाओं की सूचना देना मुख्य मकसद होता है। प्रभावशाली तबका जनमत निर्माण में अहम भूमिका अदा करता है, इसलिए सत्ता का जोर उसे अपनी तरफ रखना होता है। सरकार और राजनीतिक दल उस तबके के बीच इस्तेमाल किए जाने वाले माध्यमों में ज्यादा से ज्यादा अपनी मौजूदगी चाहते हैं। आमतौर पर ऐसा जोर आम जनता के बीच प्रचार पाने के लिए नहीं दिखाई देता।
भारत में सत्ता की कमान संभालने वाले विभिन्न नेताओं ने समय-समय पर प्रचार माध्यमों और मीडिया के जनोन्मुख होने पर जोर दिया है। इसका एक अर्थ मीडिया में सरकार की खबरों को ज्यादा से ज्यादा जगह देना भी रहा है। इंदिरा गांधी ने 1971 के अपने एक भाषण में कहा कि करीब तीन-चार वर्ष पहले एक जलसे में मैंने कहा था कि एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि समाचार-पत्रों में केवल पांच प्रतिशत स्थान विकास संबंधी समाचारों को दिया जाता है। कल फिर मेरे सामने यही वाक्य दोहराया गया और मैंने कहा कि निश्चित ही आप मेरे पुराने वक्तव्य के बारे में कह रहे हैं। उन्होंने कहा, नहीं। यह हाल के सर्वेक्षण के अनुसार है। इससे पता चलता है कि इन सालों में विकास संबंधी समाचारों को दिए जाने वाले स्थान के प्रतिशत में किसी तरह का कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
नेताओं की तरह संचारविदों ने भी विकास संबंधी खबरों के प्रकाशन/प्रसारण पर जो दिया है लेकिन उनका मकसद केवल उन माध्यमों में ऐसी खबरों के प्रसार से नहीं रहा है जो एक खास तबके की पहुंच तक सीमित हों। पी.सी जोशी के अनुसार, आजादी के बाद हमारे कई सारे गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों की असफलता की वजह यही रही है कि वो गरीबों से वैसा कोई संबंध कायम नहीं कर सकी। इस दौर में भी गरीब और विकास की खबरों को गरीब या जरूरतमंद तक पहुंचाने की बजाय उसके मीडिया में दिखते रहने की मांग ज्यादा है। यह मांग सत्ता की विश्वसनीयता को बनाए रखने के मकसद से होता है, ना कि उस गरीब या जरूरतमंद को खबर देने के लिए जो ना तो अखबार खरीद सकता है, ना रेडियो, टीवी, मोबाइल या इंटरनेट की उस तक पहुंच है। सत्ता इसीलिए उस तरह के संचार माध्यमों के विकास पर ज्यादा जोर देती है जो समाज के ऊपरी तबके के बीच उसका संदेश पहुंचा दे। उस तबके में अक्सर समाज में मुख्य किरदार व मुखिया जैसे लोग होते हैं जिनका कि एक दायरे में लोगों पर अपना प्रभाव रहता है। अमेरिकी समाजशास्त्री और संचारविद पॉल एफ. लेजर्सफेल्ड (1940) ने अमेरिकी मतदाताओं पर जनसंचार माध्यमों के प्रभाव का अध्ययन करने के बाद ओपीनियन लीडर की अवधारणा रखी, जिसमें कहा गया कि जनसंचार माध्यम पहले ओपिनियन लीडर तक पहुंचते हैं। ओपिनियन लीडर जिस तरह से उस बात को ग्रहण करता वो अपने दायरे में उसे उस तरह से प्रस्तुत करता है। विल्बर श्रेम ने भी अपनी पुस्तक द प्रोसेस एंड इफेक्ट्स आॅफ मास कम्युनिकेशन में हाउ कम्युनिकेशन वर्क्स शीर्षक से जनंसचार के मॉडल को रखा। इसमें कहा गया कि मीडिया संगठनों से खबरें पहले इंटरप्रेटर यानि व्याख्याकार के पास जाती है, और वहां से उसके दायरे में आने वाले लोगों की श्रृंखला में खबर फैलती चली जाती है। उन्होंने लोगों की इस श्रृंखला को मास आॅडियंस नाम दिया। मीडिया संगठन सीधे जनमानस (श्रेम का मास आॅडियंस) से संवाद नहीं करते बल्कि वो व्याख्याकार के जरिए लोगों तक पहुंचते हैं। ये व्याख्याकर वही होगा जो मीडिया के संपर्क में रहता हो। इस अध्ययन में जिस प्रभावशाली तबके का जिक्र किया जा रहा है वो वही है जिसे लेजर्सफेल्ड ने ओपिनियन लीडर और श्रेम ने इंटरप्रेटर कहा है। यह समाज का वो हिस्सा है जो जनमत निर्माण में भूमिका अदा करता है, जो कि मीडिया माध्यमों के जरिए मिलने वाली सूचना को एक समूह के बीच ले जाता है। ऐसे लोगों में गांव का एक मुखिया, पंच, किसी पार्टी का नेता, कार्यकर्ता, सरकारी कर्मचारी से लेकर परिवार के मुखिया, पुरुष और पढ़े-लिखे लोग तक शामिल हैं। सत्ता के प्रचार और संचार तंत्र का पूरा जोर इस तबके से संवाद तक ही होता है।
गुड गवर्नेंस और सोशल मीडिया
सोशल मीडिया के जरिए गुड गवर्नेंस यानि की बेहतर प्रशासन के रिश्ते को स्थापित करने की कोशिश दिखती है। आॅक्सफोर्ड इंटरनेट इंस्टीट्यूट के प्रो. विलियम एच. डटन सोशल मीडिया को फिफ्थ इस्टेट यानि लोकतंत्र के पांचवें खंभे के तौर पर देखते हैं।
गुड गवर्नेंस के लिए राज्य सरकारें और वहां के विभाग तेजी से खुद को सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सक्रिय कर रहे हैं। कहा ए जा रहा है कि इससे सरकारी विभाग जनता तक सीधे पहुंच सकेंगे और लोग भी उस विभाग से संबंधित अपनी समस्याएं सीधे सरकारी अधिकारियों तक पहुंचा सकेंगे। इससे भ्रष्टाचार पर लगाम कसेगी। सोशल मीडिया को गुड गवर्नेंस के माध्यम के तौर पर पेश किया जा रहा है। इन दिनों ऐसी कई सारी खबरें देखने-पढ़ने-सुनने को मिल रही हैं जिनका सार इस तरह का होता है कि फलां विभाग अब सोशल मीडिया पर सक्रिय है और वहां लोग अपनी समस्याएं रख रहे हैं, भ्रष्ट अधिकारियों की पोल खुल रही है, भ्रष्टाचार की शिकायत करना आसान हो गया है आदि। कुछ खबरों के शीर्षक से इसे समझा जा सकता है जनता के सवालों का बाबूओं को तुरंत देना होगा जवाब, फेसबुक पर करें दिल्ली में राशन के लिए शिकायत, अमूल और कस्टमर के बीच सोशल मीडिया पर वॉर, तेल कंपनियों की सोशल साइट पर की जा सकेगी शिकायत,मंत्रालय का निर्देश, रेलवे पर भी सोशल मीडिया का असर, फेसबुक पर दौड़ी, सरकारी अमले को सोशल मीडिया पर आने के निर्देश।
सत्ता, प्रभावशाली तबके के बीच बदलती संचार तकनीक को बढ़Þावा देती है और उसके जरिए संवाद करना शुरू कर देती है। सत्ता जिस तकनीक को चुनती है, वो तकनीक ज्यादा तेजी से प्रसार पाती है। भारत में सोशल मीडिया के प्रसार को भी इसी रूप में देखा जा सकता है। सोशल मीडिया की पहुंच भारत में 10 फीसदी लोगों तक है और यहां तक पहुंचने के लिए सोशल मीडिया को 10 साल से ज्यादा का समय नहीं लगा। सोशल मीडिया ने जितनी तेजी से यह प्रसार हासिल किया है, वो केवल इस माध्यम का लोगों के बीच स्वीकार्यता या पहुंच की वजह से नहीं है। मीडिया माध्यम को विकास करने के लिए उपयुक्त माहौल की जरूरत होती है। राष्ट्रीय व्यवस्था में किसी भी माध्यम के विकास के लिए माहौल सत्ता द्वारा तैयार किया जाता है। पिछले 10 सालों में सत्ता और उसके राजनीतिक वर्ग ने सोशल मीडिया को अपने नए माध्यम के तौर पर बढ़ावा देना शुरू किया है।
सवाल है कि क्या लोकतंत्र का आधार इस तरह की व्यवस्था हो सकती है जिसके बारे में समाज के एक बड़े तबके की कोई समझ ही ना हो या उस तक पहुंच ही ना हो? सोशल मीडिया के बारे में, जो भारत में 19 प्रतिशत लोगों तक पहुंचता है और जिसमें आधे से कम लोग उसमें सक्रिय रूप से हिस्सेदारी करते हैं, सरकार और शासन व्यवस्था की यह समझदारी कि वो इसके जरिए लोगों तक पहुंचेगी, क्या यह महज लोगों को भ्रम में रखने के लिए है? क्या यह समाज के उन थोड़े से लोगों तक पहुंच बनाकर, व्यापक समाज में वैधता पाने और सोशल मीडिया के दायरे से वंचित लोगों को वंचित रखने की कोशिश है? अगर सरकार या उसके मंत्रालय के पास लोगों से जुड़ने के लिए सोशल मीडिया को माध्यम के तौर पर इस्तेमाल करते हैं तो इसका साफ सा अर्थ है कि जो लोग सोशल मीडिया के दायरे से बाहर हैं वो सरकार द्वारा सोशल मीडिया के जरिए दी जा रही सुविधाओं या सूचनाओं से मरहूम (वंचित) रह जाएंगे। मरहूम रह जाने का एहसास, एक बाजार तैयार करता है। जिसे ह्यगुड गर्वनेंसह्ण कहा जा रहा है वो उन थोड़े से लोगों के लिए ही रह जाता है जो सोशल मीडिया या इंटरनेट के जरिए उस तक पहुंच पाते हैं। सोशल मीडिया व नेटवर्किंग साइटों पर होने वाली बहसों व चचार्ओं के जरिए समझा जा सकता है आखिर इसके दायरे में कौन से मुद्दे प्रमुख होते हैं।
सोशल मीडिया की बहसें
सोशल मीडिया पर होने वाली बहसें समाज के एक छोटे से हिस्से से जुड़ी होती हैं।कई बार तो बेहद छोटे से हिस्से के मनोरंजन से जुड़ी होती है। भारत में सर्वाधिक चर्चित सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म फेसबुक और ट्विटर के ट्रेंड के अध्ययन से इस बात को समझा जा सकता है। (देखें उपरोक्त तालिका) फेसबुक और ट्विटर पर बहसों के ज्यादातर विषय फिल्में, फिल्मों के अभिनेता-अभिनेत्री, खेल, टेक्नोलॉजी या कुछ तात्कालिक चर्चित राजनीतिक घटनाक्रम रहते हैं। हालांकि इसे सोशल मीडिया नाम दिया गया है लेकिन इसमें कहीं भी सोसाइटी का व्यापक तौर पर या आम समाज का प्रतिनिधित्व नहीं दिखाई देता। बल्कि इस तरह के माध्यमों पर होने वाली बहसें अन्य माध्यमों में भी इस कदर हावी रहती हैं कि वहां जो स्थान आम खबरों को मिलना चाहिए वो नहीं मिल पाता। इससे यह स्पष्ट होता है कि एक समय में वर्चस्व रखने वाला मीडिया दूसरे माध्यमों या अपेक्षाकृत पुरानी तकनीक पर आधारित मीडिया को अपने प्रभाव की गिरफ्त में रखता है। सोशल मीडिया का दबाव इस तरह से है कि आज जो ट्विटर या फेसबुक ट्रेंड है वो टीवी चैनलों और कल के अखबारों की सुर्खियों का हिस्सा होते हैं। टीवी या अखबारों की सुर्खियां भी फेसबुक व ट्विटर पर नजर आती हैं लेकिन वो ट्रेंड सेटर नहीं बन पातीं। ट्रेंड सोशल मीडिया सेट (तय) कर रहा है और बाकी उसके फालोवर (पीछे लगने वाले) हैं। अगर ये फालोवर नहीं होंगे तो इन्हें आउट डेटेड (बाजार से बाहर) होने का खतरा उठाना पड़ेगा। संचार के परंपरागत माध्यमों को हम उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं जो अब आउट डेटेड हो चुके हैं। ऐतिहासिक रूप से परंपरागत माध्यमों की पहुंच किसी भी संचार तकनीक में सबसे ज्यादा रही है।
दुनिया भर के गुलाम मानसिकता वाले देशों में सत्ता संस्थान या राजनीति के संवाद और संचार का माध्यम कभी भी वो भाषा या संचार तकनीक नहीं रही है जो व्यापक जनता द्वारा बोली या इस्तेमाल की जाती है। वर्चस्वशाली सत्ता हमेशा अलग बोली-भाषा में काम करती है। अफ्रीकी साहित्यकार न्गुगी वा थ्यंगो इसे इस रूप में अभिव्यक्त करते हैं कि आबादी का एक बहुमत केंद्रीय सत्ता से इसलिए वंचित कर दिया जाता है क्योंकि सत्ता की भाषा पर उसे महारत हासिल नहीं है। परंपरागत संचार माध्यमों के अलावा अन्य माध्यम जिस तक लोगों की पहुंच सुगम होती जाती है, सत्ता उसे छोड़कर नई संचार तकनीक अपना लेती है। इस तरह से समाज में वर्ग आधारित व्यवस्था को बरकार रखने में मदद मिलती है।
सोशल मीडिया का प्रसार और भारत के मतदाता
भारत में इंटरनेट की पहुंच
क्रम संख्या(लगभग) प्रतिशत
1 भारत की जनसंख्या: 1 अरब 27 करोड़ 100
2 कुल इंटरनेट उपभोक्त: 24 करोड़,31लाख 99हजार 19
3 सोशल मीडिया के सक्रिय प्रयोगकर्ता: 10 करोड़, 60 लाख 8
4 सक्रिय मोबाइल उपभोक्ता: 886,300,000 70
5 सक्रिय मोबाइल इंटरनेट उपभोक्ता: 185,000,000 15
6 सक्रिय मोबाइल सोशल मीडिया प्रयोगकर्ता 92,000,000 7
भारत के गांवों में इंटरनेट की पहुंच
क्रम संख्या (लगभग) प्रतिशत
1 भारत की जनसंख्या 1,270,000,000 100
2 कुल ग्रामीण जनसंख्या 889,000,000 69
3 कुल ग्रामीण इंटरनेट उपभोक्ता 68,000,000 5.4
4 सक्रिय ग्रामीण इंटरनेट उपभोक्ता 46,000,000 3.6
5 सक्रिय ग्रामीण मोबाइल इंटरनेट उपभोक्ता 21,000,000
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