इन दिनों बिहारी फिल्मों का मतलब गंदे और भद्दे पोस्टर वाली भोजपुरी फिल्मों को ही समझ लिया गया है। जिनके पोस्टर और नाम पढ़कर ही प्रबुद्ध बिहारी तबका उससे अलगाव कर ले। इन सबके बीच एक मैथिली भाषा की फ़िल्म ‘मिथिला मखान’ को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा जाता है, जबकि इस फ़िल्म को अभी तक बाज़ार में उतारा भी नहीं जा सका है। यह फ़िल्म उन दूसरी बिहारी फिल्मों से अलग है जो बाज़ारवाद के दौर में बिहारी संस्कृति को पीछे छोड़ चुकी है, जहाँ असली बिहार दूर-दूर तक नज़र नहीं आता।
इस युवा निर्माता को बॉलीवुड की चकचौंध ने कभी आकर्षित नहीं किया। नितीन का कहना है कि मैं बिहारी हूँ, इसलिए मैंने बिहारी भाषा में फ़िल्म बनाई। नितीन कहते हैं कि बॉलीवुड हमारा है ही नहीं। मैं भोजपुरी भाषी हूँ, बिहार का निवासी हूँ यहाँ मुझे ज्यादा अपनापना मिलता है।
नितीन इसके पहले भी नीतू चंद्रा के प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले भोजपुरी फ़िल्म ‘देसवा’ बना चुके हैं। फ़िल्म को अंतराष्ट्रीय ख्याति भी मिली मगर फ़िल्म रिलीज़ नहीं हो सकी। नितीन का कहना है कि फ़िल्म पूंजी का खेल है। फ़िल्म बनाने से लेकर उसके डिस्ट्रीब्यूशन तक में बड़ी पूंजी की जरूरत होती है।
नितीन के पूंजी की बात के साथ ही इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि बिहारी में भोजुपरी सिनेमाओं के एकाधिकार के आगे मिथिला मखान और देसवा जैसी सिनेमाओं को जगह नहीं मिल रही। बिहार में वैसे भी क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों को थिएटर में जगह नहीं मिलती। छोटे शहरों में तो इन्हें जगह मिल जाती है, मगर बड़े शहरों में इन्हें संघर्ष करना पड़ता है। जिन सिंगल थिएटर में क्षेत्रीय सिनेमा को जगह मिलती भी है वहां आज कल की भोजपुरी सिनेमाओं ने कब्ज़ा जमा लिया है। यह मान लिया गया है कि बिहार की जनता बिहारी फ़िल्म के रूप में भद्दे पोस्टर और भद्दे गानों वाली फ़िल्म ही देखना पसंद करेगी। देसवा और मिथिला मखान को दर्शक नहीं मिलेंगे।
भोजपुरी सिनेमा और मैथिली सिनेमा की शुरुआत लगभग साथ-साथ ही हुई। 1961 में नाज़िर हुसैन ने पहली भोजपुरी फ़िल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो’ बनाई। जो आज भी भोजपुरी की क्लासिक फिल्मों में से एक मानी जाती है। वहीं 1965 में फनी मजूमदार ने पहली मैथली फ़िल्म ‘कन्यादान’ बनाई। भोजपुरी फिल्मों की शुरुआत के बाद लगातार कई फ़िल्में बनी, मगर मैथली फिल्मों का दौर चल नहीं सका। 70 के दशक में ‘ममता गावे गीत’ के बाद मिथिला भाषा की फ़िल्म का निर्माण जैसे थम ही गया। फिर 2002 में मैथिली फ़िल्म ‘सस्ता जिंदगी मेहंगा सिंदूर’ आई। उसके बाद भी एक दो ही मैथली फिल्मों का ही निर्माण हुआ। जबकि भोजपुरी सिनेमा में एक समय ब्रेक आने के बाद भी वह वापस से पटरी पर आ गई। 2000 के बाद भोजपुरी सिनेमा का एक दौर आया। मगर व्यवसायीकरण के प्रवेश के बाद भोजपुरी फिल्मों का स्तर गिरना शुरू हो गया, जो कि हिंदी फिल्मों की दोयम दर्जे की फिल्मों की प्रतिछाया बनकर रह गई। परिणामस्वरूप पढ़े लिखे बिहारी तबकों ने इससे दूरी बनानी शुरू कर दी ।
नीतू कहती हैं कि हम भोजपुरी सिनेमा की खोई इज़्ज़त “छाप” रहे हैं, जिसे आज के तथाकथिक भोजपुरी सुपरस्टार्स ने गँवा दिया है। नितीन तो आज कल की भोजपुरी सिनेमा को भोजपुरी सिनेमा मानने से भी इंकार करते है। उनका कहना है कि जब एक प्रबुद्ध बिहारवासी खुद को उस फ़िल्म से जोड़ ही नहीं पाये तो वह उनका सिनेमा कैसे हुआ ?
बहरहाल, सवाल यह भी उठता है कि अगर इन फिल्मों को रिलीज़ मिले भी तो क्या यह फ़िल्में दर्शक जुटा पाएंगी। जिस तरह बंगला फिल्मों और साउथ की फिल्मों को वहां की जनता ने अपनाया हुआ है क्या प्रबुद्ध बिहारी जनता एक अच्छे विषय पर बनी बिहारी फ़िल्म को अपनाएगी ?
इस बात का निष्कर्ष निकालना थोड़ा मुश्किल है। बिहार की युवा पीढ़ी बिहारी भाषा से ही दूर होती जा रही। नितीन भी कहते है कि जिस तरह बंगला भाषी, मराठी भाषी, तेलगु या तमिल भाषी अपनी भाषा से प्यार करते हैं, क्या एक बिहारी अपनी भाषा से प्यार कर पाता है ? हम बिहारी अपनी भाषा में बात करने से भी कतराते हैं। लेकिन शायद बिहारी भाषा की अच्छी फ़िल्में बिहारियों को उनकी भाषा के करीब लाने का काम कर सकती है।
मिथिला साहित्यकार उषा किरण खान मिथिला मखान जैसी फिल्मों का निर्माण एक अच्छा कदम मानती है। उनका कहना है कि आगे और भी मिथिला फ़िल्में बननी चाहिए। उषा खान मानती है कि जिस प्रकार बंगला साहित्य पर फिल्मों का निर्माण होता है उसी तरह अगर मिथिला साहित्य जिसकी अपनी अंतराष्ट्रीय ख्याति भी है उनपर भी फिल्मों का निर्माण होना चाहिए। इससे मिथिला फिल्मों को एक गंभीर स्वरूप मिल सकता है और शायद दर्शक भी।
Comments are Closed