अब अंग्रेजी बोलल जाई

 अमिताभ श्रीवास्तव | सौजन्‍य: इंडिया टुडे
भागलपुर जिले की 17 वर्षीया सिमरन मिश्र 12वीं पास कर पटना के ललितनारायण मिश्र संस्थान से बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में स्नातक कर रही हैं. फिर उनकी तमन्ना किसी आला संस्थान से एमबीए कर बड़े कॉर्पोरेट घराने में काम करने की है. वे तीन बहनों में सबसे बड़ी हैं. सो, उनकी चाहत बहनों को भी उच्च शिक्षा दिलाने की है. पर एक ही दिक्कत है कि उनकी स्कूली पढ़ाई हिंदी माध्यम से हुई है. वे कहती हैं, ”फर्राटेदार अंग्रेजी बोले बगैर मेरे सपने पूरे नहीं हो सकते. मुझे अंग्रेजी और उसमें सीधा संवाद सीखने की जरूरत है.” थोड़ी शर्मीली पर इरादों की पक्की सिमरन ने स्पोकन इंग्लिश कोचिंग सेंटर की ऑनलाइन तलाश की. वे ब्रिटिश लिंगुआ स्पोकेन इंग्लिश इंस्टीट्यूट के संपर्क में आईं, जहां वे अंग्रेजी प्रशिक्षण कोर्स में दाखिल हो गईं. उन्हें 5,000 रु. देने पड़े पर महीने भर में इतना भरोसा आ गया है कि वे हॉटस्टार ऐप्प पर अंग्रेजी फिल्में देखने लगी हैं.

अब सरकारी प्रोत्साहन भी
बिहार में बड़ी संख्या में युवाओं में यह एहसास गहराया है कि धड़ल्ले से अंग्रेजी न बोल पाने के कारण उनके करियर का विकास रुक रहा है. इस जरूरत को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी समझ रहे हैं. उन्होंने कुछ समय पहले विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान कहा था, ”बिहार के युवाओं की योग्यता और मेहनत के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है. वे बौद्धिक क्षमता में दुनिया में किसी से कम नहीं हैं. उन्हें बस अंग्रेजी में संवाद करने की कला में महारत हासिल करने की जरूरत है.” उन्होंने हर छात्र के लिए स्पोकन इंग्लिश प्रशिक्षण की व्यवस्था करने का वादा किया और कहा, ”हम बिहार के युवाओं में भरोसा जगाने के लिए सब कुछ करेंगे.”

नीतीश की पहल से शायद उनके सियासी गुरु कर्पूरी ठाकुर के फैसलों से हुए नुक्सान की कुछ भरपाई हो सके. उन्हीं के फैसलों से बिहार में 1967 में अंग्रेजी को वैकल्पिक विषय बना दिया गया था. तब वे शिक्षा मंत्री थे. उस नियम के मुताबिक, अगर कोई बाकी विषयों में पास है तो उसे 10वीं पास करने के लिए अंग्रेजी में पास होने की जरूरत नहीं. जब ऐसे छात्रों की तादाद बढ़ने लगी तो उन्हें व्यंग्य में ‘कर्पूरी डिविजन’ से पास कहा जाने लगा.

फिर, 1975 में अंग्रेजी को दोबारा अनिवार्य विषय बना दिया गया, पर बिहार में 1981 में जब 10+2 की व्यवस्था लागू की गई तो फिर पुराने नियम लागू हो गए. यही स्थिति 2016 में भी है. नीतीश सरकार 10वीं पास करने के लिए अंग्रेजी को अनिवार्य विषय तो शायद ही बनाए, पर वह इस भाषा का प्रशिक्षण ज्यादा से ज्यादा छात्रों को मुहैया कराना चाहती है.

इस मकसद से राज्य सरकार ब्लॉक स्तर पर कौशल विकास केंद्र खोलने जा रही है, ताकि छात्र अंग्रेजी बोलना और कंप्यूटर के बुनियादी हुनर सीख सकें. 1991 बैच के आइएएस अफसर और रेवेन्यू बोर्ड के सदस्य एस.एम. राजू कहते हैं, ”अंग्रेजी बोलने का प्रशिक्षण वंचित वर्गों के छात्रों में भरोसा जगाने के काम आता है.”

राज्य के एससी-एसटी कल्याण विभाग के सचिव के तौर पर अपने कार्यकाल में वे 32,000 दलित नौजवानों को अंग्रेजी सिखाने में कामयाब रहे हैं. महादलित छात्रों के प्रशिक्षण की योजना की कामयाबी के मद्देनजर नीतीश अब सभी छात्रों के लिए इस योजना को विस्तार देना चाहते हैं. बिहार देश में तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है. बिहार में 15-29 वर्ष आयुवर्ग के लोगों की संख्या 1,94,21,689 है. इसी वर्ग से अंग्रेजी सीखने वाले सबसे ज्यादा हैं.

निजी खिलाड़ियों की नजर
इतनी बड़ी युवा आबादी की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सरकार को निजी क्षेत्र से सहयोग लेना पड़ेगा. कुछ निजी खिलाड़ी पहले ही इसमें जुटे हुए हैं. एक अनुमान के मुताबिक, करीब एक लाख छात्र इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स में दाखिला ले चुके हैं. पटना में ही ऐसे 100 से अधिक केंद्र हैं, जहां हर साल करीब 50,000 छात्र और प्रोफेशनल्स अंग्रेजी बोलना सीखने आते हैं. बाकी हर जिले में कम से कम 2-3 स्थापित केंद्र हैं, जहां करीब 1,000 छात्र दाखिला लेते हैं.

एक वक्त तो सिर्फ क्रिकेट स्टार कपिल देव के अनुमोदन वाला रैपिडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स ही हुआ करता था. बीरबल झा ने पटना में 1993 में पहला ब्रिटिश लिंगुआ केंद्र खोला था. अब इसके चार केंद्र हैं और करीब 5,000 छात्र इसके विभिन्न कोर्सों में पढ़ रहे हैं. उनकी कंपनी इस क्षेत्र में राज्य में सबसे बड़ी है. चेन्नै आधारित वीटा ने भी दशक भर पहले पटना में अपना केंद्र स्थापित किया था. आज वह भी एक बड़ा केंद्र है.

अंग्रेजी ही क्यों?
दिल्ली के हिंदू कॉलेज से पढ़े ब्रिटिश लिंगुआ के शिक्षक दीपू कुमार कहते हैं, ”युवाओं का मकसद बेहतर संवाद सीखकर अच्छी नौकरी पाना है. अंग्रेजी ही नौकरी नहीं दिलाती पर एक जरिया बन जाती है.” पटना के आशियाना नगर में आइटी सॉल्यूशंस का अंतरराष्ट्रीय कॉल सेंटर चलाने वाली कंपनी नॉदर्न आइटी सर्विसेज प्रा. लि. के सीईओ मुराद खान मानते हैं कि उनके काम के लिए अंग्रेजी बोलने वालों की तलाश काफी मुश्किल है. वे कहते हैं, ”बेहतर अंग्रेजी जानने वाले उच्च शिक्षा या बेहतर नौकरियों के लिए बाहर चले जाते हैं. सो, हमें विभिन्न जिलों से पटना आने वाले लोगों में से ही चुनना पड़ता है. आज भी हमारे पास एक अंतरराष्ट्रीय कॉल सेंटर खोलने के लिए 50 से अधिक लोगों की मांग है पर हमारे पास प्रशिक्षित दावेदार ही नहीं हैं.”

अंग्रेजी सीखने के लिए छात्र हर हिस्से से आते हैं. वहीं पटना से दूर के इलाकों में अंग्रेजी कोचिंग की संख्या और फीस, दोनों कम है पर सीखने वालों की कमी नहीं. दक्षिण-पूर्व बिहार के नवादा में स्टडी सेंटर चलाने वाले रमेश खन्ना चार बैच में करीब 250 छात्रों को पढ़ाते हैं. छात्र उन्हें पांच महीने के कोर्स के लिए प्रति माह 300 रु. देते हैं. वे कहते हैं, ”मेरे छात्र आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के हैं. उनके मां-बाप उन्हें पटना या दूसरे शहरों में नहीं भेज सकते पर उनमें अंग्रेजी सीखने की ललक काफी है.”
 दूसरे भी सीखने वाले
छात्रों के अलावा इन केंद्रों में सेल्स प्रोफेशनल्स आते हैं जो हिंदी में बात तो कर सकते हैं पर अंग्रेजी में अटकते हैं. उनके अलावा वकील भी आते हैं जो हिंदी में तो मुवक्किलों को समझा लेते हैं पर दलील रखने के लिए अंग्रेजी की जरूरत महसूस करते हैं. साथ ही बैंकिंग, बीमा और नर्सिंग क्षेत्र के लोग भी आते हैं. गांवों से ऐसे लड़के भी पहुंचते हैं जो इंटरव्यू के पहले अंग्रेजी दुरुस्त कर लेना चाहते हैं.

22 वर्षीय मुकुल कुमार सिंह पिछले साल रक्षा विभाग की एक नौकरी का इंटरव्यू पास नहीं कर पाए. वे कहते हैं, ”मुझसे सियाचिन के बारे में पूछा गया. मैं जवाब जानता था पर मेरी जबान ही नहीं खुली.” अब वे वीटा में अंग्रेजी सीख रहे हैं. फिल्म इंग्लिश विंग्लिश की श्रीदेवी की तरह 37 वर्षीया नूतन दास पटना के बोरिंग रोड पर ब्रिटिश लिंगुआ के केंद्र में प्रीपोजिशन के नोट्स ले रही हैं. उनके पति एक दवा कंपनी में ऊंचे पद पर हैं और उनकी सात साल की बेटी पटना में प्रतिष्ठित नोट्रे डेम स्कूल में पढ़ती है. नूतन कहती हैं, ”बेटी के टीचर्स ने कहा कि मैं उससे अंग्रेजी में बात और उसकी पढ़ाई में मदद कैसे कर पाऊंगी? सो, मैंने ब्रिटिश लिंगुआ में दाखिला ले लिया.”

अंग्रेजी का हौवा दूर करना

वीटा की बबीता कहती हैं, ”किसी को अंग्रेजी की बुनियादी जानकारी हो तो उसे फर्राटेदार बोलना सिखाने में तीन से चार महीने लगते हैं.” वैसे काफी कुछ परिवेश पर भी निर्भर करता है. ”अगर आप अभ्यास छोड़ देते हैं तो भूल सकते हैं.” वे कहती हैं, ”हफ्ते भर के बाद हम उनसे अंग्रेजी में बात शुरू करते हैं. चौथे हफ्ते में हम उनसे हर बात अंग्रेजी में ही करते हैं. धीरे-धीरे यह क्रम बढ़ाते जाते हैं.” बिहारी उच्चारण को शिक्षक मातृभाषा का असर कहते हैं. बिटिश लिंगुआ के दीपू कहते हैं, ”इस दोष से निजात पाने के वास्ते कम ही लोग हमारे पास आते हैं. सो, हमारा जोर उस पर नहीं होता.”

बढ़ रहा आत्मविश्वास
अंग्रेजी बोलना सीखने से कइयों की जिंदगियां बदल गईं. वाणिज्यिक कर विभाग के संयुक्त आयुक्त 52 वर्षीय विश्वनाथ पासवान कहते हैं कि ब्रिटिश लिंगुआ के कैप्सूल कोर्स से उन्हें काफी लाभ मिला. वे कहते हैं, ”वैसे हमारे यहां फाइल का काम ज्यादातर हिंदी में होता है पर देश के दूसरे हिस्सों में अपने साथियों और कारोबारियों से बात करने में अंग्रेजी से मदद मिलती है.” हिंदुस्तान लीवर में एक 30 वर्षीय अधिकारी कहते है, ”कमजोर अंग्रेजी से मैं जवाब नहीं दे पाता था. अंग्रेजी सीखने के बाद मैं हर मीटिंग में हिस्सा लेता हूं और पटना में 38 सेल्स पर्सनल का मुखिया हूं.”

कारोबारी नुस्खा
स्पोकन इंग्लिश के धंधे के तेजी से बढऩे की वजह शिक्षा, रोजगार और सामाजिक उत्थान की प्रेरणाएं हैं. अंग्रेजी मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग से ऊपर उठने की सीढ़ी मानी जाती है. वीटा की इंस्ट्रक्टर वली सबीना कहती हैं, ”अंग्रेजी अब अभिजनों की भाषा नहीं रह गई है. यह अवसर की भाषा बन गई है क्योंकि इससे कंप्यूटर जुड़ा है.”

पटना विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख डॉ. हेतुकर झा कहते हैं, ”बिहार में ज्यादातर युवा पढ़ाई-नौकरी के लिए घर छोड़ने को तैयार हैं. स्पोकेन इंग्लिश बेंगलूरू, हैदराबाद या दिल्ली जाने का टिकट माना जा रहा है. गांव के लड़कों में भी कृषि से लगाव नहीं बचा है, वे अंग्रेजी को कॉल सेंटरों में नौकरी का पर्याय मानते हैं. उच्च शिक्षित लोग अच्छी नौकरी के लिए बेहतर संवाद कला सीखना चाहते हैं. हिंदी हृदय प्रदेश में अब हिंदी सिर्फ नेता ही बोलते हैं. अंग्रेजी का पेशेवर महत्व बढ़ गया है.”






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