ए सर उस पुकी नहीं इस पुकी आइए…

abha dube siwan patna  biharआभा दुबे
बिहार में एक जिला है सिवान ..और सिवान में भी कई सिवान हैं ,जिसे बाकी कई चीजों के साथ- साथ भाषा के स्तर पर भी साफ देखा जा सकता है ….यहाँ की भोजपुरी में खास तरह का लोकेल टच है .. भाषा- बोली का अपना -अपना टोला – मोहल्ला है ,, एक टोले में भोजपुरी का ठाठ है तो दूसरे में अलंकारिक भाषा का मुकुट मणि …एक टोले में आपको सुनने को मिलेगा – – ए सर उस पुकी नहीं इस पुकी आइए ..उस पुकी कादों है ..पैरवा में लभेड़ा जाएगा .. ठीक उसी वक़्त दूसरे टोले में तथाकथित बुद्धिजीवियों कीं अलंकारिक भाषा आपको रीति काल में लेकर चली जाएगी
ए सब कुछ बताना सिवान का परिचय कराना नहीं अलबत्ता सिवान के बहाने यहाँ के साहित्यिक धरा -माहौल पर पूर्वजों , समकालीनों को याद करते हुए वर्तमान ही नहीं भविष्य के लिए चिंतित होना है ,,,डॉ राजेन्द्र प्रसाद ,खुदाबख्श , सरीखे पूर्वजों को याद करते हुए डॉ त्रिपाठी सियारमण और अपने समकालीन हृषिकेश सुलभ , वंदना राग , सुनील पाठक ,सत्यानन्द निरुपम , सुदीप्ति के साथ क्यों न इसे और समृद्ध किया जाए ,,क्योंकि सिवान का मतलब साहेब का आतंक नहीं चद्रशेखर का संघर्ष और शहादत भी है .. नटवरलाल की ठगी नहीं राजेन्द्र बाबू की विद्वत्ता है … आतंक ,संघर्ष और मिटटी के के गंध बीच कविता -कहानी का रचा जाना भी है ..माँ के नाम अंतिम पाती , वसंत के हत्यारे और हिजरत के पहले भी है…
इसी सिवान की धरती पर जब मेरे प्रथम काव्य संग्रह हथेलियों पर हस्ताक्षर का लोकार्पण और उस पर चर्चा हुई तो मुख्य अतिथि के तौर पर उस कार्यक्रम में आए हृषिकेश सुलभ जी का चुनाव , मुझे अपनी और वहाँ की मिटटी से जुड़े हर रचनाकार की इच्छा लगी ..
मैंने सिवान में अपनी पुस्तक पर चर्चा की बात सोची तो उसके मूल में यहाँ की मिटटी में रचना का एक बिरवा रोपना था ,,मेरी पुस्तक की भूमिका लिखने वाली अनामिका को पढ़ा चुके डॉ सियाराम त्रिपाठी ने मेरी कविता की सराहना की तो लगा सिवान के भीतर सियासत के सामानांतर साहित्य का विस्तार हो रहा है …सुलभ जी ने संग्रह पर चर्चा के बाद कहा === आखिर क्या वजह है कि राजनैतिक ,सांस्कृतिक रूप से समृद्ध सिवान से साहित्यिक गतिविधियों की कोई खबर नहीं आती ..?. वाकई ए सवाल है और इस पर चर्चा होनी चाहिए .मुझे खुशी होगी इस साहित्यिक काफिले में यहाँ की मिटटी से जुड़े तमाम संवेदनशील लोग सिवान को साहित्य का सिवान बनाने को एक मुहिम की तरह लें ,,यंहा सिर्फ होली छठ ही नहीं साहित्यिक कार्यक्रमों को भी अंजाम दे,,,,?






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