राजनीतिक कारणों से बिहार में बदहाल शिक्षा
राज्य में शिक्षण संस्थाओं की कमी बढ़ती गई है। शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाएं बंद हुर्इं, डायट्स जैसी संस्थाएं नहीं बन पार्इं। राज्य में महाविद्यालयों की संख्या भी नहीं बढ़ी, शिक्षकों की नियुक्तियां रुकी रहीं। हां, हाल के वर्षों में कुछ नए विश्वविद्यालय बने हैं, नए स्कूल खुले हैं। मगर नियमित शिक्षकों की बहालियां बंद हैं। इन सब का संबंध शिक्षा की नई नीतियों से तो है, साथ ही उनके पीछे की अर्थनीति व राजनीति से भी है।
विनय कुमार कंठ.पटना।
कई शिक्षाशास्त्री मानते हैं कि शिक्षा का हमेशा एक राजनीतिक एजेंडा रहा है। कभी यह एजेंडा समाज की व्यवस्था बनाता था, तो कभी अर्थव्यवस्था इस पर हावी रही। पुराने जमाने में भी शिक्षा के पीछे एक किस्म की राजनीति छुपी थी। कोई ताज्जुब नहीं कि अगर ब्राह्मणों ने अपनी शिक्षा व्यवस्था बनाई थी तो अंगेजों ने औपनिवेशिक शासन के लिए एक नई व्यवस्था गढ़ी। आजादी की लड़ाई के समय नई तालीम समेत इसके कई विकल्प बने।
आजादी के बाद लोकतंत्र का संदर्भ अलग परिस्थिति बनाता है और एक नई व्यवस्था की जरूरत बनी। लोकतंत्र ने राजनीति को एक नया दर्जा दिया और जाहिर है कि उस राजनीति की बहसों और बहुतेरी प्रतिस्पधार्ओं ने शिक्षा को सतही और गहरे, दोनों तौर पर प्रभावित किया। साथ ही जिस तरह से अर्थव्यवस्था और राजनीति का संबंध गहरा हुआ, उसमें शिक्षा भी शामिल हुई।
भारत में नीतियों का निर्माण केन्द्र के स्तर पर होता रहा है, भले ही उन्हें लागू करने में राज्यों ने उनमें अपना रंग और तेवर भर दिया हो। राज्यों का आर्थिक स्तर अलग-अलग रहा है और राजनीति से उसका रिश्ता भी। इन सब ने राजनीति और लोकतंत्र के साथ शिक्षा को प्रभावित किया है। बिहार में शिक्षा के इतिहास और वर्तमान का अपना स्वरूप है, जो आजादी के बाद धीरे-धीरे शिक्षा व्यवस्था को कमजोर बनाता गया। कुछ अन्य राज्यों की तरह बिहार ने केन्द्र एवं अंग्रेजी के वर्चस्व को चुनाती दी- अंग्रेजी के बिना स्कूल पास करने की नीति आई, और बाद के बदले समय के लिए इसके परिणाम सुखद नहीं माने गए। राज्य में ऐसे निर्णय के पीछे राजनीतिक कारण थे, न कि शिक्षा-शास्त्रीय या अर्थनीति से संबंधित। उसी प्रकार पहले स्कूल- कॉलेज लोककल्याण के लिए खोले जाते थे। उस दौर में राजनेताओं के नाम पर खुलने लगे और फिर लाभ या व्यवसाय या कुछेक लोगों की नौकरी के लिए।
ढाई दशक में आई गिरावट
दूसरी ओर राज्य की गरीबी के कारण स्कूल-कॉलेज की हालत बिगड़ती गई जो नई केंद्रीय योजनाओं-कार्यक्रम या कानून के बाद भी आज संतोषजनक नहीं है। सच पूछिए तो शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था से संबंधित हाल के लंबे-चौड़े दावे दिखावे के हैं और व्यवस्था और दावे दोनों की अपनी-अपनी राजनीति है,
जिसका संबंध आज के लोकतंत्र से भी है। पिछले ढाई दशक में शिक्षा में गिरावट ही आई है, चाहे संख्या का सवाल हो या गुणवत्ता का। शिक्षण संस्थाओं की कमी बढ़Þती गई है। शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाएं बंद हुईं, डायट्स जैसी संस्थाएं नहीं बन पाईं। महाविद्यालयों की संख्या भी नहीं बढ़Þी, शिक्षकों की नियुक्तियां रुकी रहीं। हां, हाल के वर्षों में कुछ नए विश्वविद्यालय बने हैं, नए स्कूल खुले हैं। मगर नियमित शिक्षकों की बहालियां बंद हैं। इन सब का संबंध शिक्षा की नई नीतियों से तो है, साथ ही उनके पीछे की अर्थनीति व राजनीति से भी है। इसलिए यह मामला गंभीर बन जाता है।
नब्बे के दशक में बड़ा परिवर्तन
नब्बेके आस-पास देश की अर्थनीति और राजनीति में बड़े परिवर्तन हुए थे। अस्सी के दशक में शुरू हुआ उदारीकरण 1991 तक एक मुकम्मल नई अर्थनीति में विकसित हो गया था जिसमें निजीकरण और भूमण्लीकरण भी शामिल हो गया। उसके समानान्तर एक ओर आरक्षण और दूसरी ओर भाजपा की नई राजनीति का सूत्रापात हो गया। 1986 की शिक्षा नीति भी आगे बढ़Þ चुकी थी और इन सबका प्रभाव बिहार में स्पष्ट दीख रहा था। पिछले डेढ़-दो साल में फिर से एक नई राजनीति उभर रही है और ताज्जुब नहीं कि एक नई शिक्षा नीति का ताना बाना बुना जा रहा है। बिहार भले ही राजनीति की दृष्टि से नयापन लाए, अर्थ एवं शिक्षा नीति के क्षेत्र में अधिक संभावना है कि वह देशव्यापी मॉडल को ही अपनाएगा, गोकि वहां उसका पिछड़ापन बना रहेगा। संभवत: इसका मुख्य कारण अधीसंरचना-संबंधी है, मगर दूसरा राजनीतिक है क्योंकि नई राजनीति की अपनी समस्याएं और अनिश्चितता है। यदि शिक्षक प्रशिक्षण की व्यवस्था ध्वस्त हुई तो उसका एक संभव कारण आरक्षण की नई संभावना हो सकती थी, यदि शिक्षा अधिकार अधिनियम में तय किए गए स्कूल के मानक और मानदंड की जगह पोशाक व साइकिल की योजना पर बल हो तो कारण वोट की राजनीति पर उसके असर की उम्मीद हो सकती है।
कॉरपोरेट क्षेत्र का गठजोड़
शिक्षा के निजीकरण को भी कॉरपोरेट क्षेत्र और राजनीति के गठजोड़ के रूप में देखा जा सकता है, चाहे केन्द्र हो या राज्य। यदि ऐसा है तो राजनीति, अर्थनीति और शिक्षा के आपसी संबंध का तर्क स्पष्ट है। मुमकिन है ऐसा न हो और इनमें से एक या ज्यादा बातों की कोई और व्याख्या हो, मगर जिस तरह से शिक्षा की सरकारी प्रणाली विफल हो रही है और कमजोर वर्गकी शिक्षा इसके विस्तार के बावजूद उपेक्षा की शिकार रही है, यह व्यवस्था दोषपूर्ण है जिसके आधार पर एक स्वस्थ लोकतंत्र स्थापना संभव नहीं। एक अच्छी खबर है हमारे पास एक कानून है, कुछ कार्यक्रम हैं, नई नीति का प्रस्ताव है और शिक्षा पर नई बहस व राजनीति बन रही है। भले वह राजनीति अभी सतही लगे, कल उसकी और गहरी परतें जरूर खुलेंगी।
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