क्या फेसबुक नेशनल मीडिया है!
युवा फेसबुकिया मित्र वेद प्रकाश ने अपनी टाइम लाइन पर जो शेयर किया था, वह आप भी जानिए। आपको न्यूज चैनल में कभी ऐसे सुनने को मिला है-कैमरामैन फलां पटेल के साथ मैं फलाना यादव। कैमरामैन फला कुशवाहा के साथ मैं फलाना विश्वकर्मा। मैं फला प्रजापति के साथ फलाना साव। कैमरामैन फलां हुड्डा के साथ मैं फलां निषाद। अगर ये ओबीसी भी मीडिया में नहीं हैं तो कौन है? एससी एसटी तो हो ही नहीं सकते। आपको सुनते होंग कि फलां मिश्रा/द्विवेदी/त्रिवेदी/चतुर्वेदी/पांडे/तिवारी/झा/दूबे/त्रिपाठी/ चौबे/त्यागी/वाजपेयी/कश्यम/शर्मा आदि-आदि..। तो ये दो चार जाति के वर्चस्व वाली मीडिया को देश का नेशनल मीडिया कैसे कहा जा सकता है। लोकतंत्र में कथित चौथाखम्भा में लोकतंत्र कहा है। ये तो ब्रह्मणवादी मीडिया है। हमारे देश का नेशनल मीडिया तो फसबुक है। जहां हर जाति वर्ग के लोग पत्रकार है। यहां कथित नेशनल मीडिया वाले मनुवादी पत्रकार बहुजनों के सामने बौना नजर आ रहे हैं।
वेद प्रकाश के टाइम लाइन पर शेयर इन बातों पर प्रतिक्रिया देते हुए गौरव कुमार पाठक कहते हैं-भाई जल क्यों रहे हो तुम, अगर तुम्हारे अंदर प्रतिभा है तो सामने आओ, दूसरे की बुराई करने से आगे थोरे ही आ जाओगे तुम, प्रतिभा के दम पर पीछे करने कोशिश करो, खुद ब खुद जवाब मिल जाएगा तुम्हे।
फेसबुक की आभासी दुनिया में इस तरह के तर्क-वितर्क कोई नई बात नहीं है। यहां फेसबुक की टाइम लाइन हर किसी के लिए अपना स्वतंत्र मीडिया का प्लेटफार्म है। अपनी बात अपनी मर्जी से रखो, विरोध की अभिव्यक्ति की पूरी आजादी ही नहीं अपितु पूरा स्पेस भी है। समाज की असली जिंदगी में कभी-कभी प्रसंग आने पर यह जरूर सुनने को मिल जाता है कि मीडिया बिक चुकी है। फेसबुक की दुनिया में तो इस बात को लेकर हर दिन चर्चा होती है। यहां तक की मीडिया को लेकर भद्दे भद्दे कॉमेट या गाली गलौच किया जाता है। यहीं यह सवाल उठता है कि यदि मीडिया भ्रष्ट है, बिकाऊ है तो असल समाज में ये लोग हैं कौन? जब मीडिया में हमेशा ही प्रतिभाशाली माने जाने वाले समाज के अभिजात्य वर्ग वालों का कब्जा है और उनका ही नियंत्रण है तो फिर मीडिया का स्तर क्यों गिर रहा है। कई आरक्षण विरोधियों से यह कहते सुना है कि इससे देश बंट गया है। आरक्षण का आधार जाति नहीं आर्थिक होना चाहिए। सवाल है कि जब मीडिया में किसी तरह का आरक्षण नहीं है। इस पेशे में अधिकतर लोग गैर आरक्षित पेशे से हैं तो फिर मीडिया की विश्वसनीयता पर इतना बड़ा संकट कैसे खड़ा हो गया है? गहराई से समझने वाली बात है, जब से सूचना तकनीकी की पहुंच जन जन तक होने लगी है, खबरों की हकीकत समझ में आने लगी है। अब बहुसंख्यक जनता मीडिया के फैलाए भ्रम में नहीं पड़ती है। पिछले साल की ही तो बात है। बिहार की सियासत में मीडिया के दुरुपयोग का बड़ा प्रयोग हुआ था। एक पार्टी विशेष ने प्रिंट मीडिया का इतना स्पेश पहले से ही बुक कर रखा था कि हर जगह वह ही वह दिखती थी। मीडिया के माध्यम से जन जन तक जंगलराज रिटर्न की बात पहुंचाने की कोशिश की गई। लेकिन परिणामों ने यह सिद्ध कर दिया कि मीडिया की गली से निकली इस सियासी भ्रम में जतना नहीं पड़ी। अंदर ही अंदर एक मौन माहौल चलता रहा और उसका परिणाम भी दिखा।
मीडिया संस्थानों का संचालन पूंजीपतियों के बश की ही बात है। बड़ी लागत मामूली करोबारी लगा कर मीडिया का इंपायर नहीं खड़ा कर सकता है। छोटे पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से एक सार्थक पहल तो होती है लेकिन जल्द ही यह पहल थक हाकर कर ठहर जाती है। पहले से महाधीश की तरह जम जमाये मीडिया संस्थानों के कारण यदि मीडिया की विश्वसनीयता संकट में है तो यह चिंता की बात दलित, पिछड़े अथवा बहुजन समाज के लिए नहीं है। जमे जमाये विश्वास से अपना हित साधते रहने वाले मीडिया मालिक इसकी चिंता करें।
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