शराबबंदी के 'साइड इफेक्ट्स'
राजेश कालरा बिहार सरकार ने फैसला किया है कि अगले साल अप्रैल से राज्य पूरी तरह से शराब मुक्त होगा। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपना चुनावी वादा पूरा करते हुए फैसला किया कि राज्य सरकार चार हजार करोड़ के राजस्व का नुकसान सह लेगी, लेकिन अपने पतियों के शराब में सारी कमाई बर्बाद करने से दर्द में जीने वाली महिलाओं को इस पीड़ा से मुक्ति दिलाएगी। ज्यादा शराब पीने से समाज में दूसरी सामाजिक बुराइयां भी पनप रही थीं।
जो शराब को हाथ तक नहीं लगाता हो और जिसने अक्सर चार घूंट का मजा लेने के बाद समाज के सबसे शिक्षित तबके को भी उजड्ड व्यवहार करते देखा हो, ऐसे शख्स के रूप में मैं इस कदम के खिलाफ हो ही नहीं सकता। इसके बावजूद मैं मानता हूं कि इसे लागू करने का दावा करना आसान है, लेकिन असल में लागू करवाना कठिन। मैं हरियाणा में रहता हूं और यहां 1996 में मैंने बंसीलाल सरकार द्वारा लागू शराबबंदी का हश्र देखा है। अक्सर हास्यास्पद स्थिति बन जाती थी। लोग काफी चलाकी से पड़ोसी राज्य दिल्ली शराब की तस्करी करते थे।
कुछ लोग तो बोनट में रखे वाइपर टैंक में शराब भरकर लाते थे। कुछ अपनी कमर पर साइकल ट्यूब लपेटकर उसमें शराब भरते थे। कुछ लोग तो इसके लिए स्कूल बॉटल्स का भी इस्तेमाल करते थे, हालांकि ये तरीके तो नए और गैर अनुभवी लोग आजमाते थे। इस काम के माहिर और जानकार लोगों को ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता था। उन्हें सिर्फ शराब तस्करों से संपर्क साधना होता था, जो बदले में उन्हें प्रोटेक्शन देते थे। शराब तस्करों की मौज हो गई थी। इस माफिया को किस चीज ने संगठित किया? पुलिस और उनके राजनीतिक संरक्षकों ने। कोई आश्चर्य नहीं कि इसी वजह से हरियाणा में 1998 में शराब बैन हटने पर सबसे ज्यादा नाराज प्रोटेक्शन माफिया ही हुआ था। बैन हटने से उनके पैसे कमाने के अवैध तरीके पर रोक जो लग गई थी। बिहार में इस बैन से सबसे ज्यादा फायदे में कौन रहेगा, सोचिए जरा।
कोई शक नहीं कि इस देश हम किसी भी चीज को संतुलित तरीके से नहीं करते हैं। हरियाणा में बैन हटते ही चारों ओर शराब की दुकानें खुल गईं। असल में, राज्य के शहरी इलाकों में और उनके आस-पास के इलाकों में तो इन दिनों चाय से ज्यादा शराब की दुकानें खुल गई हैं।
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए मुझे लगता है कि नीतीश कुमार ने नेक कदम उठाया है, लेकिन इसे लागू करना बड़ी चुनौती होगी। हमारे देश का सिस्टम इतना ‘स्मार्ट’ है कि किसी भी नेक इरादे को बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। हमने अक्सर शराबबंदी के चौंकाने वाले ‘साइड इफेक्ट्स’ देखे हैं। अवैध शराब के धंधे को अच्छा मौका मिलेगा और इसका प्रसार होगा। जाहिर है ऐसे में जहरीली शराब लोगों तक पहुंचेगी और इसका नतीजा यह होगा कि हर साल सैकड़ों लोगों की जान जाएगी।
सच तो यह है कि मुझे नहीं पता कि शराबबंदी सही है या गलत। मैं शराब पर प्रतिबंध से मुक्त हरियाणा के गुड़गांव में जब घूमता हूं तो पाता हूं कि शराब के ठेके अक्सर निर्माणाधीन इमारतों जैसे मुफीद ठिकानों के पास होते हैं, वहां बिहार समेत देश भर के प्रवासी और गरीब मजदूर दिनभर की हाड़ तोड़ मेहनत के बाद जो कमाई होती है उससे बेदर्दी से शाम को उड़ा देते हैं। ऐसे में उनके पास घर भेजने के लिए पैसे कम ही बचते हैं। इसकी वजह से सामाजिक-आर्थिक समस्याएं पैदा होती हैं। अगर शराबबंदी नहीं है तो हम ऐसे स्थिति देखते हैं, तो कोई इसका समर्थन कैसे करेगा?
लेकिन, इस बहस का दूसरा पहलू यह भी है कि शराबबंदी से ज्यादा मदद नहीं मिलती है। राज्य को राजस्व का घाटा उठाना पड़ सकता है, जिसकी बेहद जरूरत रहती है। एक ओर शराब के तलबगार इसे किसी भी कीमत पर हासिल कर लेते हैं तो दूसरी तरफ इसके कारोबार में मुनाफा काटने वालों की चांदी दूसरे तरीकों से जारी रहती है।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि मैं शराब को हाथ भी नहीं लगाता, लेकिन मैंने कई बार खुशी और गम के मौकों पर लोगों को पीकर बहकते हुए देखा है। मुझे उनके लिए तकलीफ होती है। लेकिन, क्या शराबबंदी से इस स्थिति पर लगाम लगाने में कोई मदद मिलेगी या नहीं, मैं बहुत आश्वस्त नहीं हूं। आप क्या सोचते हैं? from navbharattimes
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