बिहार में अब मतदान के लिए सिर्फ 57 सीटें बचीं हैं. इन सीटों पर मतदान 5 नवंबर को होगा. बिहार चुनाव में प्रचार का अंतिम दिन मंगलवार है लेकिन प्रधानमंत्री का चुनावी अभियान एक दिन पहले ख़त्म हो चुका है. पहले वाले तीनों चरणों के उलट चौथे चरण में सबसे ज्यादा 57.59 फ़ीसदी मतदान हुआ. सबसे रोचक बात यह रही कि चौथे चरण में आख़िरी तीन घंटों में न्यूनतम मतदान रहा. सुबह के पहले तीन घंटे में 18.97 फ़ीसदी पोलिंग हुई और आख़िरी तीन घंटे में 9.30 फ़ीसदी वोटिंग हुई. इस वोटिंग पैटर्न का मतलब माना जाता है कि दोपहर बाद खाते-पीते मध्य वर्ग के परिवारों के लोग वोट करने निकलते हैं और सुबह-सुबह ग़रीब वर्ग के लोगों की भीड़ रहती है.I
दोपहर बाद वोटिंग बढ़े तो माना जाता है कि सरकार के ख़िलाफ़ रोष है और इस वजह से वोटिंग बढ़ी है.दिल्ली में 2013 में हुए विधानसभा चुनाव इसका उदाहरण हैं. लेकिन कुछ लोग इसके विपरीत तर्क भी दे रहे हैं कि जो वोटिंग बढ़ी है, वह मौजूदा सरकार से नाराज़गी को ही प्रतिबिंबित कर रही है. I
नज़र डालते हैं एक नवंबर और दो नवंबर यानी चुनावी अभियान के अंतिम दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों पर और इस दौरान छपे विज्ञापन पर. प्रधानमंत्री ने 1 नवंबर को नीतीश-लालू पर मुसलमानों को दलितों-पिछड़ों के आरक्षण में से हिस्सा देने की बात उठाई और 2 नवंबर को 1984 में हुए सिख दंगों की बात की.
अल्पसंख्यकों को आरक्षण के मसले पर भाजपा का विज्ञापन भी आया. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी का विज्ञापन अधूरी बात ही कह रहा है. संसद में 2005 के जिस भाषण का ज़िक्र किया गया, उसका संदर्भ ही बदल दिया गया. प्रधानमंत्री तो इस स्तर पर जाकर बोलने लगे जैसे भारतीय मुसलमान किसी दूसरे देश से आते हों और उनमें जो दलित व पिछड़े हैं, उनकी चिंता क्या करनी!
दो नवंबर को भाषण में प्रधानमंत्री ने 84 के सिख विरोधी दंगों की बात उछाली और कहा कि कांग्रेस को तो सहिष्णुता पर बोलने का हक़ ही नहीं है. कांग्रेस के कुछ नेताओं के ख़िलाफ़ दिल्ली में हुई मार-काट के मसले में मुकदमें चले लेकिन कानपुर और इंदौर जैसे शहरों में जो हुआ, उसमें किन लोगों का हाथ था? यह वही लोग बता सकते हैं जो उस समय के चश्मदीद हैं. ख़ैर, जो भी हो, प्रधानमंत्री के प्रचार अभियान से पूरा देश बिहार के बारे में बहुत कुछ जान गया है. बिहार की जो छवि पहले से बनी हुई थी, वह टूटी है. घर-घर में टीवी है, प्रधानमंत्री हर तीसरे-चौथे दिन दो या तीन सभा करते थे जिसे टीवी पर लाइव दिखाया जाता था.I
प्रधानमंत्री ने जो भी मुद्दे उठाए, सवाल उठाए, आंकड़े दिए, सबका काउंटर महागठबंधन की ओर से तुरंत होता रहा. विशेष पैकेज दिया तो पैकेज का एक-एक पुर्ज़ा सामने आ गया. जो टीवी से बचा, वो सोशल मीडिया और व्हाट्सएप से बताया गया. देश के दूसरे हिस्से में रह रहे लोगों को पता चला कि बिहार में कितने घंटे बिजली आती है, बिहार में कैसी सड़कें हैं, बिहार में महिला सशक्तीकरण कितनी तेज़ रफ्तार से चल रहा है आदि-आदि. लेकिन साथ ही एक धारणा ज़रूर पुख्ता हुई कि बिहार में जाति बहुत अंदर तक है और यदि ऐसा न होता तो आरएसएस और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शायद बाबा साहब अंबेडकर का गुणगान करते ना नज़र आते (बीबीसी हिंदी डॉटकॉम)
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