इन आख्यानों और उपाख्यानों के निर्माण में हालाँकि पितृसत्ता से नियंत्रित विमर्श तंत्र की महत्वपूर्ण और भेदमूलक दखल है. चूकि इस संक्षिप्त आलेख में छठ पूजा का स्त्रीवादी पाठ करना उद्देश्य है फिर भी धर्म और धार्मिक तंत्र पर पितृसत्तात्मक कब्जे का असर सक्रिय स्त्रियों पर क्या पड़ता है , उसके उदहारण स्वरूप निरंजना निवासी “सुजाता’ की चर्चा यहाँ पर समीचीन है. बोधगया के उरुवेला के पास सेनानी नामक गांव की सुजाता ने तपस्यारत क्षीणकाय गौतम को “खीर “ खिलाकर ‘मध्यम मार्ग ‘ का रास्ता दिखाया. क्या ऐसा संभव है कि तत्कालीन भारत के लगभग सभी प्रमुख अध्यात्मिक स्कूलों से वाद-विवाद करता हुआ गौतम दुःख के निदान का अपना मार्ग ढूढने के लिए तपस्या रत हो और उसे एक साधारण स्त्री खीर खिलाकर चैतन्य कर दे, मार्ग दिखा दे.तर्क और व्यवहार तो ऐसा कहता है कि गौतम उस स्त्री से शास्त्रार्थ के बिना परास्त होने वाले नहीं थे. खीर और स्नेहपूर्ण वार्तालाप से गौतम को बुद्धत्व की दिशा का भान हुआ होगा. लेकिन बौद्ध स्मृतियाँ इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है.
जातक कथाओं में सारे बुद्ध, अपने हर अवतरण में सुजाता से खीर प्राप्त करते हैं, अर्थात इस ईश्वरीय नियति से पहले तो सुजाता के व्यक्तित्व को नियंत्रित किया गया, फिर बुद्ध कालीन कई सुजाताओं की उपस्थिति की कहानियाँ इस व्यक्तित्व की प्रखरता को नियंत्रित करती हुई कही गईं. मसलन बुद्ध की प्रमुख शिष्या सुजाता , जो अरहंत है, गृहणी सुजाता, जिसे बुद्ध अच्छी और पतिव्रता, नियंत्रित पत्नी होने का उपदेश करते हैं. स्पष्ट है कि अध्यातम के रास्ते इतने आसान नहीं हैं, स्त्री के अपने व्यकतित्व को अपने तरीके से खड़ा करने के लिए . धार्मिक तंत्र पर पुरुष नियंत्रण उसे अलौकिक श्रेष्ठता तो दे सकती है , देवी के रूप में, लेकिन सांसारिक श्रेष्ठता संभव नहीं, इसके लिए धार्मिक स्मृतियाँ , अनुश्रुतियाँ पितृसत्तात्मक दायरे में स्त्रियों का व्यक्तित्व वृत्त तय करती हैं., विदुषी स्त्रियों के इक्के दुक्के उद्धरणों को जन स्मृतियों में यदि ढूढ़ भी लिया जाये तब भी स्त्रियों , श्रमिकों और दलितों का समूह विद्याध्यन, धार्मिक रस्ते से इश्वर प्राप्ति ,आदि से वंचित किया गया. बौद्ध मठों में स्त्रियों के प्रवेश के संघर्ष और प्रवेश के बाद भिक्खुओं की तुलना में भिक्खुनियों की दोयम हैसियत आज स्त्रीवादी इतिहासकारों के द्वारा चिह्नित ऐतिहासिक तथ्य हैं. ऐसे में स्त्रियों के लिए धर्म और अध्यात्म का एक रास्ता दिखता है भक्ति मार्ग से, कर्मकांड रहित भक्ति मार्ग. छठ व्रत की भक्ति पद्धति और प्रत्यक्ष ईश्वर से उनका साक्षात्कार उन्हें आकर्षित भी करता है और धार्मिक स्पेस में आंशिक अधिकार की सुखानुभूति भी देता है.
भक्ति मार्ग से अध्यात्म और धर्म की इस डगर पर स्त्रियाँ बड़े पैमाने पर निकलती हैं, जिसका एक बड़ा उदहारण छठ व्रत में उनका बड़े पैमाने पर नदियों के घाटों पर सार्वजनिक रूप से उमडना है. यह एक ऐसा धार्मिक उत्सव है , जिसमें स्त्रियों का इसके सम्पूर्ण प्रक्रिया पर सर्वाधिक नियंत्रण होता है. इस व्रत के स्वरुप को देखते हुए लगता है कि यह जब भी शुरू हुआ होगा, समाज में व्याप्त पुरोहितवाद और उसके संकीर्ण कर्मकांडों के बरक्स हुआ होगा. इस पूजा में बिना किसी मन्त्र या विशिष्ट धार्मिक कर्मकांड के सीधे तौर पर प्रकट प्रकृति देव सूर्य की आराधना की जाती है, नदियों के घाटों पर बिना अपनी जातीय पहचान के लोग पानी का अर्घ्य देकर अपनी भक्ति निवेदित करते हैं. पूजा का यह फॉर्म स्त्रियों सहित उन सभी जातियों के लिए आसान हो जाता है, जिन्हें शिक्षा के “सष्टांग” से वंचित किया गया था या फिर धार्मिक कर्मकांडों से सायास दूर किया गया था.
हिंदू धर्म में कर्म आधारित पारलौकिक सुख सुविधा एक ऐसी व्यवस्था है, जिसके सहारे जीवन के अधिकारों से वंचित जाति समूह , स्त्रियों सहित, अपने सांसारिक दुखों का निदान ढूंढते हैं. ईश्वर के साथ लगाव दरअसल जनता के लिए मार्क्सवादी व्याख्या में इन्हीं सन्दर्भों में अफीम की तरह काम करता है. धार्मिक कर्मकांडों से मनोवैज्ञानिक लाभ पाती स्त्रियों के लिए यही कर्मकांड नकारात्मक भूमिका अख्त्यार कर लेते हैं, जब वे उन्हें पुरुषों के वर्चस्व के प्रति अनुकूलित करने लगते हैं और पितृसत्तात्मक वर्चस्व उन्हें स्वाभाविक लगने लगता है. ईश्वर जो अधिकांश मामलों में पुरुष है, स्त्रियों के लिए परलोक में भी पितृसत्तात्मक अनुकूलन का वतावरण बनाता है और व्यावहारिक रूप में स्त्रियाँ अपने सांसारिक पति, पिता और पुत्र के प्रति समर्पित होती जाती हैं.
छठ व्रत नदियों के घाटों पर अंतिम अर्घ्य के पूर्व लगभग चार दिनों का कर्मकांड है. घर के धार्मिक वातावरण पर स्त्रियों का नियंत्रण होता है, व्रत करती स्त्रियाँ पूजा की, श्रधा की और पवित्रता की प्रतीक हो जाती हैं. पूजा की सामग्रियां यद्यपि जाति दायरो से मुक्त होकर शूद्र , दलित जातियों के परिवारों से भी लाई जाती हैं, मसलन अर्घ्य का सूप दलित जाति के परिवार ही बनाते हैं, परन्तु व्रत के घर में आकर कठोर शुद्धता से नियंत्रित हो जाती हैं. शुद्धता का यह आग्रह आम तौर पर भी स्त्रियों के अस्तित्व को ही प्रश्नाकिंत करता है. मसलन रजस्वला स्त्री अशुद्ध मानी जाती है और छठ सहित किसी भी धार्मिक कर्मकांड के लिए अयोग्य हो जाती है. पवित्रता और अपवित्रता का सिद्धांत धार्मिक पगडंडियों से होते हुए सामाजिक ताने –बाने को प्रभावित करते रहे हैं और समाजिक पदानुक्रम में बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं. यह सिद्धांत स्त्रियों के साथ- साथ एक बड़े जन समूह को दोयम दर्जे की अधिकारहीन जिंदगी जीने के लिए विवश कर देते हैं, वहीं इन वंचित समूहों के भीतर अपनी इस सामाजिक अवस्थिति के प्रति अभ्यस्तता और समर्पण का भाव भी पैदा करते हैं.
छठ व्रत के दौरान गाये जाने वाले गीतों के माध्यम से इस भक्ति मार्ग में पितृसत्तात्मक समाज में अपनी नियत भूमिका के प्रति स्त्रियों की अनुकूलता -निर्मिति को समझा जा सकता है. एक गीत है :
चार पहर रात जल थल सेवली, सेवली चरण तोहार ………
इस गीत में व्रत करती स्त्रियाँ अपने आराध्य देव सूर्य और छठी मैया से अपने ससुराल के लिए अन्न –धन-भण्डार , मांगती हैं, मायके के लिए भाई भतीजा, अपने लिए अखंड सौभाग्य यानि पति की आयु मांगती हैं ,अर्थात अपने लिए उनकी कोई स्वतंत्र कामना नहीं है. इसी गीत में समाज में लड़की –लड़के के भेद को स्वाभाविक सिद्ध करती पंक्तियाँ हैं :“रुनकी झुनकी बेटी मांगील , पोथिया पढन के दामाद’ ( खेलती –कूदती बेटी और पढ़ने वाले दामाद की कामना ). आगे इसी गीत में सेवा समर्पण भाव को स्त्रियों को स्वाभाविक वृत्ति बताने वाली और पीढ़ी दर पीढ़ी इस भाव को अनुकूलित करने वाली अभ्यस्तता भी है ,जब व्रत करती स्त्री अपने लिए अपने बेटे के बहु में सेवा भाव का वरदान मांगती है.
इसका दूसरा पहलू भी है. छठ व्रत चुकी पौरिहित्य से मुक्त है, ईश्वर और उपासक के बीच सीधा सम्बन्ध स्थापित करता है, इसलिए व्रत करती स्त्रियाँ इसके वातावरण को अपने स्वभाव के अनुकूल साख्य और साहचर्य का वातावरण बना देती हैं. प्रकृति से सहज लगाव के अभियक्ति का अवसर होता है यह समय. उनके गीतों में भी इसकी झलक मिलती है. “ केलवा जे फरलई घउद से ता पर सुग्गा मंडराए,’ मरवाऊ रे सुगवा धनुष से सुग्गा गिरे मुरछाये. सुग्गे से मैत्री और विरोध का यह गीत प्रकृति से स्त्रियों के संबंधों का रूपक है. पुरुष सुग्गे के मौत के बाद जब स्त्री सुग्गा रोती है तो फिर से गीत गाती स्त्री द्रवित हो जाती है- सुगी जे रोव हे विछोह से सुरुज देवा होव न सहाय .
सूरज बाबा मुरली बजावथ कदम तर , सखी सब का बटोरथी हे, कदम तर
जैसन फूलवा म्ल्होरिया घर सुन्दर हे ,कि ओइसही ,
कि सुरुज बाबा मोरो दिनवा सुन्नर हे कि ओइसही ( सूरज मुरली बजा रहे हैं और सखियाँ कदम्ब के पेड़ के नीचे जमा हो कर कुछ चुन रही हैं. वे सुख के दिन के फुल चुन रही हैं, जैसे माली के घर में फुल की शोभा होती है वैसे ही व्रत करने वाली स्त्रियों के दिन की शोभा है ). सुख के इस कामना में सूरज का मानवीकरण और उनसे कृष्ण के रूप में स्नेह की पंक्तियाँ हैं ये. कदम्ब, मुरली और सखियों का कदम्ब के पेड़ के नीचे जमा होना गोपियों और समान्यतः स्त्रियों की भक्ति के मुख्य अब्लम्ब कृष्ण के प्रति भक्ति के प्रतीक हैं. प्रकृति से सम्बन्ध के साथ- साथ कृष्ण भक्ति में खुद के समर्पण और उससे मिलने वाले भक्ति फल के मनोविज्ञान से गाई जाने वाली पंक्ति हैं ये. साथ ही माली, तम्बोली आदि जातियों के घरों के प्रति स्त्रियों के स्नेह को भी व्यक्त करती हैं पंक्तियाँ.
स्त्रीवादी इतिहासकारों ने बंगला पुनर्जागरण के सन्दर्भ में लिखा है कि कैसे “भद्र” घरों की स्त्रियाँ मालिन, तम्बोलिन आदि स्त्रियों, जिनका उनके घरों में सहज आना जाना था, के साथ सखी भाव में होती थीं, उनके साथ गाती –नाचती थीं. पुनर्जागरण का सबसे बड़ा कुठारघात इसी सम्बन्ध पर हुआ जब “भद्र पुरुषों” ने अग्रेजों के अनुकरण में इस साहचर्य को “भदेस” और असभ्य करार दिया. छठ के गीतों में वे सम्बन्ध यथावत सुरक्षित हैं. इन पंक्तियों में तो अपेक्षाकृत कम आर्थिक हैसियत वाले उन घरों से महिलाएं अनुराग रखती और स्पर्धा करती दिख रही हैं. छठ व्रत इस सम्बन्ध को जीवित रहने का उपक्रम सिद्ध हो सकता है. नदियाँ पारिस्थितिकी के अन्य अवयवों सहित सभ्यता के विकास का दंश झेल रही हैं. ऐसे में सूर्य, पेड़ –पौधों सहित पक्षियों तक से नाता जोड़ती स्त्रियों का नदियों के प्रति लगाव प्रकृति के प्रति मानव मन के अनुराग को आश्वस्त करती हैं. लोक व्यवहार के ऐसे पर्व, जो पंडों, पुरोहितों के कर्मकांड से दूर हैं, लोक संस्कृति के संरक्षक होते हैं. बनारस के घाट हों, कुम्भ के दौरान के इलाहाबाद या हरिद्वार के घाट हों या गया के फल्गु के घाट, जहाँ पंडों, पुरोहितों के द्वारा आयोजित शुष्क कर्मकांड चलते रहते हैं, की तुलना में छठ व्रत के दौरान नदियों के घाटों के माहौल ज्यादा सरस ज्यादा मनोरम और ज्यादा समतापूर्ण होते हैं, इसके बावजूद कि सालों से संपन्न होते इस व्रत के भीतर भी शुद्धतावादी कर्मकांडों ने डेरा जमा लिया है.
एक दूसरा पहलू, जो इन दिनों छठ व्रत के आयोजनों का हिस्सा है, वह है मीडिया के बूम के बाद इस पर्व का व्यसायिक दोहन. साथ ही व्रत के दौरान नदियों पर आस्था के उत्सव में शरीक जन समूह के राजनीतिकरण के प्रयास .इस प्रक्रिया में यह पर्व जाने- अनजाने बिहारी अस्मिता का प्रतीक भी बन गया है. मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों से लेकर पूर्वांचल के इलाकों तक में सांस्कृतिक एक सूत्रता का वाहक हो गया है यह पर्व. तो इसी क्रम में इन महानगरों में जो स्त्रियाँ अपने परिवारों के साथ या स्वयं अपने करिअर के प्रक्रम में रह रही हैं, शिक्षा के प्रभाव में आधुनिक हो रही हैं, उन्हें भी अन्य व्रतों की तरह यह व्रत भी परिवार के भीतर पितृसत्तात्मक वर्चस्व में पुनरुत्पादित कर देता है, बल्कि इसकी व्यापकता के कारण इसका कुछ ज्यादा ही असर उनके व्यक्तित्व पर पड़ता है. from: http://www.streekaal.com/
Comments are Closed