मिथिला में रामलीला : ‘हे राम ! तुम्हारी रंगभूमि में कहो कौन-सा रूप धरें ?’
यह तो हर कोई जानता है कि रामलीला में रामकथा का मंचन होता है। वर्तमान में पूरे विष्व में जो रामलीला प्रचलन में है, उसका मूलाधार है रामचरित मानस और वाल्मीकि रामायण ही है। लेकिन रामलीला कब और कैसे प्रारंभ हुई, इसको लेकर विद्वानों का एकमत नहीं है। एक संदर्भ में कहा जाता है कि त्रेता युग में श्री रामचंद्र के वनगमनोपरांत अयोध्यावासियों ने चैदह वर्ष की वियोगावधि राम की बाल लीलाओं का अभिनय कर बिताई थी। तभी से इसकी परंपरा का प्रचलन हुआ। एक अन्य जनश्रुति से यह प्रमाणित होता है। कि इसके आदि प्रवर्तक मेघा भगत थे जो काशी के कतुआपुर महल्ले में स्थित फुटहे हनुमान के निकट के निवासी माने जाते हैं। एक बार पुरुषोत्तम रामचंद्र जी ने इन्हें स्वप्न में दर्शन देकर लीला करने का आदेश दिया ताकि भक्त जनों को भगवान के चाक्षुष दर्शन हो सकें। लोगों के मतानुसार रामलीला की अभिनय परंपरा के प्रतिष्ठापक गोस्वामी तुलसीदास हैं, इन्होंने हिंदी में जन मनोरंजनकारी नाटकों का अभाव पाकर इसका श्रीगणेश किया। इनकी प्रेरणा से अयोध्या और काशी के तुलसी घाट पर प्रथम बार रामलीला हुई थी।
जिस तरह श्रीकृष्ण की रासलीला का प्रधान केंद्र उनकी लीलाभूमि वृंदावन है उसी तरह रामलीला का स्थल है काशी और अयोध्या। मिथिला, मथुरा, आगरा, अलीगढ़, एटा, इटावा, कानपुर, काशी आदि नगरों या क्षेत्रों में आश्विन माह में अवश्य ही आयोजित होती है लेकिन एक साथ जितनी लीलाएँ नटराज की क्रीड़ाभूमि वाराणसी में होती है उतनी भारत में अन्यत्र कहीं नहीं। इस दृष्टि से काशी इस दिशा में नेतृत्व करती प्रतीत होती है। रामलीला का मंचन पूरे उत्तर भारत में प्रत्येक वर्ष पारंपरिक कैलेंडर के अनुसार सितंबर और अक्टूबर माह में दशहरा पर्व के दौरान होता है। रामलीला के मुख्य प्रतिनिधिय अयोध्या, रामनगर और बनारस, वृंदावन, अलमोड़ा, सतना और मधुबनी है।
आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में भी रामलीला का महत्व कम नहीं हुआ है।दशहरा पर्व के दौरान हर एक गांव, शहर में भगवान राम के वनवास से लेकर अयोध्या वापस आने पर आधारित नाटक मंच का आयोजन किया जाता है। रामलीला में प्रायरू राम के बचपन से लेकर वनवास जाने और राम रावण के बीच युद्ध का मंचन होता है। इस नाटक में जो लोग प्रतिनिधित्व करते हैं वे पूरी तरह अपने अपने रोल के मुताबिक वस्त्र भी धारण करते हैं। राम के गौरव का वर्णन तुलसीदास ने 16वीं सदी में ब्रजभाषा में किया था ताकि इस महाकाव्य को सभी लोगों तक सरल भाषा में पहुंचाया जा सके। रामलीला प्रोग्राम में अधिकतर संभाग रामचरित्रमानस से लिया गया है जिसका मंचन दशहरा के दौरान पहली से लेकर दसवें दिन तक होता है।
चूंकि श्रीराम की अद्र्धांगिनी सीता मिथिला से हैं, तो भला यह कैसे संभव था कि मिथिला में रामकथा के इस नए रूप का प्रचलन न हो। लिहाजा, मिथिला में भी रामलीला अपने नए रूप में षुरू हो हुआ। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्राजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोजपुरी और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है।
मैथिली लोक कला में किर्तनिया नाच का अपना इतिहास रहा है। वर्तमान में यह शैली मृतप्राय सी हो गई थी, किंतु मिथिलांचल के विभिन्न महापुरुषों जैसे मोदलता, स्नेहलता, प्रेमलता, कनकलता, सीताराम शरण, प्रभृत लोगों ने श्रीराम विवाह के माध्यम से इस शैली को पुनर्जीवित किया। इस क्रम में श्री सीताराम विवाह मंडली (मधुबनी) की स्थापना हुई, जिसकी ख्याति पूरे भारत एवं नेपाल तक है। यह लोकनाट्य शैली अपने मंचन और स्वरुप में ‘टोटल थियेटर’ है और इसके प्रदर्शन के इतिहास पर नजर डालें, तो यह लोकभाषा का आदि रंगमंच है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके प्रभाव क्षेत्र में न केवल मिथिला प्रांत, बल्कि नेपाल, उड़ीसा, असम और बंगाल तक के क्षेत्र हैं।
किर्तनिया नाच को बिदापत नाच के नाम से भी कई जगहों पर जाना जाता है। हालांकि, जगदीशचन्द्र माथुर ने बिदापत नाच को ‘उत्तर बिहार की अल्प-परिचित प्रदर्शन-विधा’ से अभिहित किया है। बिहार के पूर्णिया जिले में बिदापत नाच नाम से एक आंचलिक नाटक की परंपरा है। इसमें मध्ययुगीन मिथिला के किर्तनियाँ नाटक तथा असम के अंकिया नात दोनों की झलक दिखाई पड़ती है। मंडलियों में प्रायः किसान और मजदूर होते हैं – अधिकतर हरिजन-वर्ग के। मंच और अभिनय परंपरा में असमिया अंकिया नाट का प्रभाव अधिक स्पष्ट है। .जिस स्थान पर पात्र अपनी सज्जा करते हैं, उसे यहाँ साज घर कहा जाता है। इसकी तुलना असमिया-नाटक के ‘छ्घर‘ या ‘छद्मगृह‘ से की जा सकती है। (संदर्भ: परंपराशील नाट्य ,जगदीशचंद्र माथुर,पृष्ठ-88.) इसमें मंच का विधान मुक्ताकाशी होता है। अन्य लोक नाटकों की तरह ही इस नाट्य-रूप की शक्ति इसका संगीत पक्ष ही है। मुख्य गायक मूलगाईन कहलाता है और उसके साथियों को समाजी कहा जाता है। मूलगाईन असम नाट्य अंकिया के मूल गायक को भी कहते हैं, तो उधर समाजी भोजपुरी के नाट्य रूप बिदेसिया में भी उपस्थित होते हैं। गीतात्मक अभिव्यक्तियों से पात्रों का परिचय करवाना और बिकटा(विदूषक) इसकी कुछ अन्य विशेषताएं हैं।
बिहार में मुख्यतः खेतिहर समाज है जो सुबह से शाम तक इस दिनचर्या में जीवन व्यापन करते हैं। अपने मनोरंजन के हेतु वो शाम को कीर्तन, नृत्य, गायन आदि पसंद करते हैं। यही कारण है कि बिहार में कीर्तन की परंपरा प्राचीनकाल से ही चली आ रही है। यह समाज निम्न वर्ग का समाज है जिसमें ईश्वर उनके कष्टहरता के रूप में विराजमान है। उसका गुणगान करके उसके जीवन कथ्य को देखकर वो अपने जीवन में आत्मसात करते है व सुख का अनुभव प्राप्त करते है।
बता दें कि बिहार के लोकनाट्यों पर असम और कलकत्ते के सांस्कृतिक प्रभाव का मुख्य कारण यहाँ के मजदूरों का पूरब देश की और आजीविका के लिए उधर जाना और दिन-भर के थकान के बाद मनोरंजन के लिए उनके नाटकों को देखकर, वापिस आते वक्त उन परम्पराओं को आत्मसात करके अपना एक नाट्यरूप अपनी जमीन पर तैयार किए जाने को हम स्वाभाविक तौर पर मान सकते हैं। कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु ने ‘बिदापत नाच’ पर एक लेख भी लिखा है और अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आँचल’ में एक दृश्य भी खींचा है। इस नाट्य रूप पर रामलीला और रासलीला का भी प्रभाव दीखता है। दरअसल, किर्तनिया शैली में वही लचीलापन है, जो रामलीला और रासलीला लोकनाट्य शैली में है। रामलीला करने वाले लोग एक ओर पूरे रामचरित मानस को मंच पर उतारने की शक्ति रखते हैं, तो दूसरी ओर राधेश्याम कथावाचक की शैली में लिपिबद्ध रामकथा को मंचस्थ करने का सामर्थ्य भी रखते हैं। (मैथिली साहित्यिक इतिहास, प्रो.बालगोबिंद झा व्यथित,पृष्ठ-48-49.)
संदर्भ आता है कि मिथिला में नाटक लिखने की शुरुआत 14वीं शताब्दी में हुई। ज्योतिरीश्वर ठाकुर का धूर्तसमागम 1325 ईस्वी में लिखा गया ऐसा नाटक है जो ना केवल मिथिला अपितु सम्पूर्ण उत्तर भारत में लिखा गया पहला नाटक है। बिहार कला एवं कलाकारों का मुख्य केंद्र रहा है, महाजनपद काल में अंग, मिथिला और मगध कलाकारों का संरक्षण स्थल था। रामायण और महाभारत के अन्तः साक्ष्य के अनुसार यहाँ के आंजनों का गणतन्त्र से गहरा संवाद था। अतः लोककला रूपों को गणतन्त्र ने पर्याप्त संरक्षण दिया। इतिहास में देखें तो तुर्क-पठान आधिपत्य हो जाने पर मिथिला अपने सांस्कृतिक मार्ग पर आगे बढ़ता रहा। इस समय में मिथिला में जो शासक थे वो कर्णाट्वंशी थे। लेकिन उन्होंने संस्कृत के अलावा मैथिली, भाषा को भी प्रोत्साहित किया। (राधाकृष्ण चैधरी, बिहार का इतिहास, पृष्ठ 141)
मिथिला गेय काव्य का केंद्र था। उमापति ने अपने नाटक ‘पारिजातहरण’ में मैथिली में ही गीत लिखे हैं। ज्योतिरीश्वर ने वर्णरत्नाकर में ‘लोरिक’ नाम के लोकगीतों का उल्लेख किया है, जो मिथिला में आज भी लोकप्रिय है।(ठाकुर,ज्योतिरीश्वर,श्वर्णरत्नाकरश्,बिहार) मिथिला में जो दर्शन का विकास हुआ और साहित्य में जो नई धारा प्रवाहित हुई उसने आसपास के प्रदेशों को प्रभावित किया। राधाकृष्णन चैधरी ने डॉ॰दिनेशचन्द्र का हवाला दिया जिनका विचार था कि श्बंगाल को अपनी सभ्यता मिथिला से प्राप्त हुईश्। (सेन,दिनेशचन्द्र,वही पृष्ठ 1401-141) मिथिला के नाटकों और संगीत का प्रभाव बंगाल, उड़ीसा, असम और पश्चिम में हिन्दी प्रदेश के शेष भाग पर काफी हुआ। इस प्रभाव और विस्तार का प्रमाण यह है की विद्यापति की रचनाओं की पाण्डुलिपियों नेपाल, बंगाल आदि प्रदेशों में भी मिलती है। (शर्मा,रामविलास, हिन्दी साहित्य की भूमिका,पृष्ठ 190)
असल में, मिथिला के लोक जीवन की एक विडंबना है कि यहां लोकनृत्य का लगभग अभाव-सा रहा है। विवाह आदि के अवसर पर भी मिथिला में लोक-नृत्य का कोई चलन नहीं है और यह बात हर जाति, हर वर्ग पर लागू होती है। लिहाजा, जो रामलीला किर्तनियां नाच के जरिए पूरे क्षेत्र में अपनी धमक बनाए रख सकता था, वह क्षीण होता गया। हालंाकि, मिथिला के विद्वानों ने संगीत एवं नाटक के साथ-साथ नृत्य पर भी कई शास्त्रीय ग्रन्थ लिखे हैं। मानो ऐसा लगता है कि दरवारों में नृत्य का चलन रहा होगा ,पर लोक में इसकी प्रतिष्ठा न होने के कारण नृत्य समाज में ग्राह्य एवं प्रचलित न बन सका। मिथिला में एक विशेष प्रकार का लोकनृत्य प्रचलित रहा है ,जिसके नर्तक को नटुआ कहते हैं। आज इसे त्रासदी कह लीजिए कि इन नटुओं की कोई सामाजिक प्रतिष्ठा मिथिला में नहीं है।
सदियों से लोग हर वर्ष रामलीला देखते हैं। कथा-वस्तु भी वही होती है। फिर भी लोग रामकथा से उबते नहीं हैं। आखिर रामकथा में ऐसा क्या है, जो लोगों को बार-बार रामलीला देखने को प्रेरित करता है?आचार्य गणेश शास्त्री कहते हैं, ष्श्रीराम का चरित्र एक आदर्श चरित्र है और सत्य पर आधारित है। वैज्ञानिक सत्य है कि सत्य कभी तिरोहित नहीं होता, कभी परिवर्तित नहीं होता और न ही उसमें किसी प्रकार की कमी या सड़ांध होती है। इन गुणों के कारण रामचरित्र में बार-बार नवीनता का दर्शन होता है। यही नवीनता श्रद्धालुओं को बार-बार रामलीला देखने को विवश करती है। रामलीला का स्वरूप जहां विशुद्ध है, वहां दर्शकों की संख्या कम नहीं होती है।
रामचरितमानस की रचना भले ही तुलसी दास ने स्वान्तः सुखाय के हेतु किया हो लेकिन तुलसी का वह स्वान्तः सुखाय विश्व साहित्य तथा विश्व जन का ही स्वान्तः सुखाय के रूप में देखा जाता है। जो उनके अन्तस्करण में निरन्तर निवास करने वाले प्रभु श्रीराम के अन्तस्करण के साथ एकाकार हो गया है। सृष्टि को बनाए रखने में नारी और पुरुष दोनों का आपसी सहयोग अपेक्षित है। नारी और पुरुष एक दूसरे के मर्म के अनुसार अनुसरण करते पाए गए है। मानस का राम नारी के अधिकार सुरक्षा के लिए जितना चिन्तित है, उसी तरह नारी सीता भी पुरुष के प्रति नारी कर्तव्य में जरा भी कंजूसी न कर स्वकर्तव्य प्रति सजग रहती है। नेपाल की तराई में स्थित जनकपुर, हिंदू धर्मावलम्बियों का प्रधान तीर्थ है। यहीं जानकी का विवाह हुआ था। प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं। प्राचीनकाल में यह मिथिला की नाभिभूमि या राजधानी थी, जहां जनक से कर्मयोग के व्यावहारिक ज्ञान हेतु देश-विदेश के जिज्ञासु जाते थे।
‘वृहद्विष्पुराण’ के अनुसार तीर्थाटन की पूर्णाहुति वहीं जाकर होती थी। वैसे तो वहां अनेक मंदिर, मंडप, कुंड इत्यादि हैं परंतु प्रमुख जानकी मंदिर, लक्ष्मण मंदिर, विवाह मंडप एवं राम मंदिर हैं। उनमें प्रथम तीन तो एक ही विशाल प्रांगण में अवस्थित हैं। किलानुमा दीवारों में घिरे वहां के सर्वप्रमुख एवं विशाल जानकी मंदिर के निर्माण की कथा है कि विवाहोपरांत जब सीता-राम जनकपुर से प्रस्थान करने लगे तो दुरूख से जनक मूर्चित हो गये। उन्होंने सीता-राम के स्मरणार्थ विश्वकर्मा को मूर्तियां तैयार करने का अनुरोध किया। कालांतर में वे मूर्तियां भूमिसात् हो गयीं। जनकपुर में अनेक कुंड हैं यथा-रत्ना सागर, अनुराग सरोवर, सीताकुंड इत्यादि। उनमें सर्वप्रमुख है प्रथम अर्थात् रत्नासागर जो जानकी मंदिर से करीब 9 किलोमीटर दूर ‘धनुखा’ में स्थित है। वहीं श्रीराम ने धनुष-भंग किया था। कहा जाता है कि वहां प्रत्येक पच्चीस-तीस वर्षों पर धनुष की एक विशाल आकृति बनती है जो आठ-दस दिनों तक दिखाई देती है। मंदिर से कुछ दूर ‘दूधमती’ नदी के बारे में कहा जाता है कि जुती हुई भूमि के कुंड से उत्पन्न शिशु सीता को दूध पिलाने के उद्देश्य से कामधेनु ने जो धारा बहायी, उसने उक्त नदी का रूप धारण कर लिया।
मिथिला के लोकगीत न सिर्फ मिथिला में , अपितु बंगाल में , असम में और उड़ीसा में भी लोक जीवन के अभिन्न अंग हैं। सच्चाई तो यह है की हरेक संस्कार के जितने रिवाज मिथिला में प्रचलित हैं, उन सबसे सम्बद्ध मंत्र उपलब्ध नहीं है, पर हर रिवाज से सम्बद्ध लोकगीत अवश्य मिल जाते हैं।यह बात भारत के लिए हम मान सकते हैं। दरअसल, संस्कारों से जुड़े रिवाज लोक-परम्पराओं के ही दुसरे नाम हैं द्यमिथिला में विवाह के गीतों में वर-वधु को राम-सीता के विवाह से जोड़ते हुए प्रायः गीत मिलते हैं। मिथिला में विवाह के लगभग पचास विधान हैं और सबसे सम्बद्ध गीत हैं। इन विवाह गीतों में संयोग की पराकाष्ठा कोह्वर में और वियोग की पराकाष्ठा समदाउन गीत जिसे विदाई गीत भी कहते हैं ,में है कोह्वर-गीत के एक उदाहरण में दुल्हा और दुल्हन को राम और सीता के रूप में निरुपित किया गया है। इसी तरह जब दुल्हन की विदाई होती है, तब विदाई के करुण समदाउन-गीत गाये जाते हैं।ये गीत विदाई के क्षण को और ही करुणामय बना देते हैं।
कोहवर गीत
एते दिन बाजय कोइली भोर भिनसरबा, आइ किए बाजय आधी राति हे
कोइली सबद सुनि पिया मोरा जागल, तखने चलल परदेश हे
घरसँ बहार भेली सुहबे से कनियां सुहबे, धय लेल पिया के पछोर हे
अपने तऽ जाइ छी पिया देश रे विदेशबा, हमरो के कहाँ छोड़ने जाइ हे
नहिरा मे छथि धनि माय-बाप-भइया, सासुरमे लक्ष्मण दिओर हे
अपना लेल छथिन प्रभु माय-बाप भइया, अपना लेल लक्ष्मण दिओर हे
अहीं तऽ पिया सींथक सिन्दूर हमार, अहीं प्रभु सोहरो सिंगार हे
समदाउन
बड़ रे जतनसँ सिया धिया पोसलहुँ
सेहो रघुवंशी नेने जाय
आगू-आगू रघुबर, पाछू-पाछू डोलिया
ताहि पाछु लक्षुमन भाय
कथी केर डोलिया, केहन ओहरिया
कि लागि गेल बतिसो कहार
चनन केर डोलिया, सबुज ओहरिया
कि लागि गेल बतिसो कहार
लऽ दऽ निकसल विजुबन कहरिया
जाहि वन ने अपन परार
केओ जे कानय राजमहल मे
केओ कानय दरबार
केओ जे कानय मिथिला नगर मे
जोड़ीसँ बिजोड़ी केने जाय
आजु धिया कोना माय बिनु रहती
छने-छने उठती चेहाय
मैथिली भाषा एवं साहित्य अपने माधुर्य एवं साहित्यिक ििव्शष्ठता के साथ लोक जीवन की भाषा के रूप में स्थापित है। इसकी समृद्ध ऐतिहासिक परम्परा है। हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि राम इतिहास की नहीं, संस्कृति की रचना हैंरू वे इतिहास पुरुष नहीं, महाकाव्य पुरुष हैं।अनेक रामायणें हैं और अनेक रामकथाएं। वाल्मीकि, भवभूति, कालिदास से लेकर तुलसीदास, कंबन, जैन आदि के राम अलग-अलग हैं। राम विजड़ित, स्थिर-स्थाणु, समय में बद्धमूल नहीं रहे हैंरू उनकी परिवर्तनशीलता उनको प्रासंगिक बनाती रही है। वे प्रश्नातीत और विवादातीत भी नहीं रहे हैंरू ‘उत्तररामचरित’ से लेकर अवधी और मिथिला की लोकपरंपरा उन्हें प्रश्नांकित करती रही हैं। राम-परंपरा एक अटूट परंपरा हैरू वह काव्य-नाट्य-नृत्य-संगीत में, उनके शास्त्रीय और लोकरूपों में, चित्रकला में मिनिएचर से लेकर मकबूल फिदा हुसेन की रामायण चित्रावली, लोहिया द्वारा कल्पित रामायण मेला आदि तक फैली है, रामलीला और रामकथा प्रवचन आदि को मिला कर। अकबर के दरबार में जो मुगल शैली विकसित हुई वह ‘रामायण’ के फारसी अनुवाद की पांडुलिपि को चित्रित करने के सिलसिले में थी। ये सभी राम की व्याप्ति और समावेशिता के साक्ष्य हैं।
रामकथा तो उसके अनेक पक्षों से वाबस्ता रही है। पत्तियों और पक्षियों से ‘तुम देखी सीता मृगनैनी’ पूछने वाले राम के संसार में प्रकृति की उपस्थिति और सक्रियता निर्णायक है। शबरी, केवट से लेकर हनुमान, जामवंत, काकभुशुंडी, सुग्रीव, बंदर, भालू आदि उनकी विराट मानवीयता के हिस्से हैं।
मैथिलीशरण गुप्त ने दशकों पहले लिखा थारू ‘तुम निरखो हम नाट्य करेंध् राम, तुम्हारी रंगभूमि में कहो कौन-सा रूप धरें?’ उन्होंने नहीं सोचा होगा कि राम को अपनी रंगभूमि को ऐसे रंक्तरंजित और कलुषित देखना होगा। गांधीजी तो अपनी हत्या पर ‘हे राम’ कह सकते थे। लेकिन क्या मृत्युंजय राम अपने ऊपर इन प्रहारों के उत्तर में कह रहे होंगेरू ‘हे गांधी’। या कि ‘हे वाल्मीकि, हे तुलसी, हे गांधी!’
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