आख़िरकार गाय बिहार में चुनाव का मुद्दा बन गई है. इसे मुद्दा बनाने पर मुहर लगाई है देश के प्रधान ने. इससे उन सबकी आतुरता भी ख़त्म हो गई जो दादरी की ह्त्या के बाद उनसे मुंह खोलने, कुछ बोलने की अपील कर रहे थे.उन्होंने अपनी प्राथमिकताओं से एक बार फिर अपने उम्मीदज़दा प्रशंसकों को आगाह कर दिया है.प्रधानमंत्री ने अख़लाक़ की ह्त्या की भर्त्सना करने के पहले लालू यादव पर हमला करना ज़रूरी समझा है जिन्होंने यह कह दिया था कि बहुत सारे हिंदू भी बीफ़ खाते हैं.
लालू के बहाने
लालू यादव के इस बयान का ख़ासकर ज़िक्र करते हुए प्रधानमंत्री ने मुंगेर की अपनी चुनाव सभा में कहा कि गुजरात में तो यदुवंशियों ने श्वेत क्रान्ति की है, लेकिन लालू ने ‘हिंदू भी बीफ़ खाते हैं’ कहकर बिहार के यदुवंशियों का अपमान किया है.
उन्होंने व्यंग्यपूर्वक पूछा कि न जाने लालू क्या-क्या खाते हैं! इस भाषण से अगर बिहार के लोगों को लोकसभा चुनाव-प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी के भाषणों की याद आ जाए तो बहुत ताज्जुब नहीं होना चाहिए. उस समय एकाधिक बार उन्होंने श्वेत क्रान्ति और गुलाबी क्रांति का ज़िक्र किया था. बात लोगों की समझ में आ जाए, इसलिए साफ़ किया था कि गुलाबी मांस का रंग है. उस वक़्त निशाने पर कांग्रेस थी. भाषण में कहा गया कि कांग्रेस ने देश में गुलाबी क्रान्ति लाने का नारा दिया है. यह बिलकुल झूठ था, लेकिन बताया गया कि केंद्र की वेबसाइट पर यह लिखा हुआ है. कांग्रेस भी इसका विरोध न कर सकी. श्वेत क्रांति बनाम गुलाबी क्रान्ति, यानी भारतीय जनता पार्टी बनाम कांग्रेस का समीकरण बहुत चतुराई से स्थापित कर दिया गया था. इसे आप चुनाव का ख़ामोश साम्प्रदायिकरण कह सकते हैं.
इसे सतह के नीचे का सांप्रदायिकरण भी कहा जा सकता है.
आधी बात, पूरा संदेश
इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल के भाषण का सिर्फ़ आधा हिस्सा दुहराया है. किसी बात को आधा बोलकर याद में दबे आधे हिस्से को उभारना आसान होता है. आप आधा बोलें, बाक़ी सामने वाला ख़ुद पूरा कर लेगा. आधा बोलने से आप पर घृणा प्रचार का आरोप भी नहीं लगता. इस बार बीफ़ खाने के बयान पर पहले सुशील मोदी का लालू यादव पर हमला, फिर उनका यह कहना कि जीत जाने पर भाजपा बिहार में गो-ह्त्या पर रोक लगा देगी और अब प्रधानमंत्री का बीफ़ का ख़ास ज़िक्र. इससे साफ़ हो गया है कि बिहार में चुनाव का असली मुद्दा क्या बन रहा है. क्या कोई नीतीश कुमार की बात भी सुन रहा है कि बिहार में यह पाबंदी पहले से है, अब लगाने का क्या मतलब!
आधा बोलकर पूरी बात जनता तक पहुंचाने की कला में संघ-परिवार माहिर है. ‘रामज़ादा-हरामज़ादा’ बयान पर चौतरफ़ा आलोचना के बाद भारतीय जनता पार्टी की सांसद आगे की सभाओं में ख़ुद तो रामज़ादा बोलती रहीं, आगे की ख़ाली जगह में जनता ख़ुद ही ‘हरामज़ादा’ भर देती थी. यह कहा जा सकता है कि चुनाव भाषण में तो ज़्यादातर विकास की ही बात थी, बीफ़वाली बात सिर्फ़ तड़के की तरह थी. लेकिन तड़का लगा कर ही अपनी बात ज़ायक़ेदार बनाई जाती है. यह कला प्रचारक प्रधानमंत्री को लम्बे अनुभव से अच्छी तरह मालूम है.
नेहरू के पोस्टर
गाय को चुनावी मुद्दा बनाने का इतिहास भारतीय जनता पार्टी के लिए पुराना है.
ब्लिट्ज के सम्पादक आरके करंजिया को एक इंटरव्यू में जवाहरलाल नेहरू ने बताया था कि 1957 के लोकसभा आम चुनाव में जन संघ ने, जिसका नया अवतार आज की भाजपा है, दिल्ली की दीवारों पर पोस्टर चिपकाए थे जिनमें नेहरू हाथ में नंगी तलवार लिए गायों को बूचड़ख़ाने की ओर हांकते हुए दिखाए गए थे. नेहरू को बीफ़ खाने वाला और गो-हत्यारा दिखाया जा रहा था और उनके ख़िलाफ़ हिन्दुओं में नफ़रत भरने की कोशिश की गई थी. लेकिन तब वह कामयाब नहीं हो सकी थी. तब की असफलता के चलते राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इस मुद्दे को छोड़ नहीं दिया. दादरी की ह्त्या पर शर्म की जगह एक के बाद एक आक्रामक बयानों से ही साफ़ हो जाना चाहिए था कि जो बात थी नहीं, उसे हक़ीक़त बनाने के पीछे मक़सद बिहार में जातियों का हिन्दूकरण करना था. आज के चुनाव प्रचार के अंत में नवादा की सभा में प्रधानमंत्री ने कहा कि लोगों को नफ़रत फैलानेवाले भाषण पर कान नहीं देना चाहिए.
उन्होंने राष्ट्रपति के सद्भाव, सहिष्णुता के सन्देश को अपनाने पर ज़ोर दिया. लेकिन आज के उनके पहले भाषण को किस खांचे में रखा जाएगा? आज मुंगेर की चुनाव-सभा में प्रधानमंत्री ने इसे लेकर किसी दुविधा को ख़त्म कर दिया है. बिहार में चुनाव विकास के मुद्दे पर ही लड़ा जा रहा है, यह कहने वाला मूर्ख नहीं तो भोला ज़रूर है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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