सियासत, समधी और संग्राम
शिशिर सोनी. नई दिल्ली।
ठीक वैसा ही हुआ जैसा बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में हुआ था। ऐन वक्त पर कांग्रेस पार्टी ने राजद-लोजपा से नाता तोड़ लिया था। आरोप लगा था अनदेखी का। कम सीटें देकर अपमानित करने का। पांच साल बाद फिर वैसा ही नजारा है। इस बार सपा ने सजी हुई थाली नीतीश-लालू द्वय के सामने से खींची है। निश्चित रूप से भाजपा की रूह को आराम मिल रहा होगा। नीतीश कुमार ने एनडीए गठबंधन में रहते हुए भाजपा नेताओं को भोज में बुलाकर सजी पंगत से पत्तल खींच ली थी। अब यह एक राजनीतिक मुद्दा है।
बिहार विधानसभा चुनाव की चर्चा से ज्यादा महागठबंधन पर बतकही चल रही थी। लालू प्रसाद के विरोध की सियासी खादपानी से पनपे नीतीश कुमार केवल भाजपा को हराने के लिए लालू के साथ हो लिए। बिहार की राजनीति में दो विपरीत ध्रुवों का एक हो जाना, बड़ी घटना थी। फिर कोशिश की गई कि सपा, लोकदल, बीजद, जदयू और राजद जैसे जनता दल के पुराने घटकों को मिलाकर तीसरे मोर्चे को आकार दिया जाए। कवायद सिरे नहीं चढ़ पाई। बिहार विस चुनाव के लिए ही कम से कम एक हो जाने की जीतोड़ कोशिश हुई। बिहार की राजनीतिक जमीन को अपने लिए उर्वर बनाने में जुटी सपा, और दशकों तक सूबे में राज कर चुके राजद, जदयू मिले। नाम दिया महागठबंधन। राजनीतिक महागठबंधन से पहले रिश्तेदारी की गठबंधन भी लालू और मुलायम सिंह यादव के बीच हो गई। लेकिन राजनीति के मुलम्मे में नाते-रिश्तेदारी ज्यादा दिनों तक ढकी छिपी नहीं रह सकी। मुलायम सिंह यादव का महागठबंधन से अलग हो जाना, एक कोरी राजनीतिक घटना नहीं। इसके गूढ़ मायने हैं। गठबंधन से सपा के टूटन का आशय यह भी लगाया जा रहा है कि भाजपा पर जिस सांप्रदायवाद का आरोप चस्पां कर लालू-नीतीश बिहार में अपनी राजनीति चमकाने में जुटे हैं, उससे मुलायम सहमत नहीं। वर्ना लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी के ताकतवर प्रधानमंत्री के रूप में अभ्युदय पर जिस तरह कथित धर्मनिरपेक्ष सियासी शक्तियों ने स्यापा मचाया उससे तो महागठबंधन की गांठें दलों के गठबंधन के साथ मजबूत होनी चाहिए थी। इसके उलट मिलने से पहले ही बिखराव शुरू हो गया। कम से कम बिहार के चुनावी बयार में सपा के बिदकने के असर लालू-नीतीश की राजनीति पर भारी पड़ने वाला है। लालू प्रसाद के 25 वर्षों के सुख दुख के साथी रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुनाथ झा ने गुरुवार को पार्टी की प्राथमिकता से जिस तरह इस्तीफा देकर सपा का दामन थामा। उससे साफ हो गया कि महागठबंधन से सपा का टूटना लिखित पटकथा के आधार पर हो रहा है। महज दो-चार सीटों की कमी-बेसी के कारण नहीं। रघुनाथ झा इस बात से दुखी थे कि लालू अब पुराने साथियों से कोई वास्ता नहीं रखते। पारिवारिक मोह में फंस चुके हैं। लालू के खिलाफ ऐसी ही आग पप्पू यादव उगलते रहे हैं। राजद के दूसरे वरिष्ठ नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह महागठबंधन पर पहले दिन से ही सवाल खड़े कर रहे हैं। यूपीए-2 में सोनिया गांधी चाहती थीं कि रघुवंश प्रसाद सिंह को राजद कोटे से मंत्री बनाया जाए, मगर लालू प्रसाद नहीं माने। तभी से लालू और रघुवंश के बीच अनकही खींचतान चल रही है। वह अब कभी भी टूटन में परिवर्तित हो सकती है। उससे पहले जदयू के बाहुबली सुनील पांडेय पार्टी छोड़ने को तैयार हैं। मोकामा विधायक अनंत सिंह को जेल में डालने से नीतीश-लालू गठबंधन से बिहार का ताकतवर और वोटों को प्रभावित करने वाला भूमिहार तबका बुरी तरह बिदका हुआ है। वैसे भी अब सूबे में अगड़ा बनाम पिछड़ा का ध्रुवीकरण तेज होगा। टिकट बंटने के बाद जातीय गोलबंदी शुरू होगी। सपा अलग लड़ी तो पप्पू यादव, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद के बीच यादव, मुस्लिम वोटों का बंटवारा होगा। इसका सीधा लाभ एनडीए गठबंधन को होगा। समधियों के बीच छिड़ी सियासी जंग में भाजपा के रणनीतिकारों के लिए मुस्कराने का समय है। from haribhoomi
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