आधे विधायक दोबारा नहीं जीत पाते चुनाव

bihar-electionपटना। चुनाव में हार-जीत सामान्य प्रक्रिया है. पर, यह जानना दिलचस्प है कि किस तरह एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक आते-आते करीब आधे विधायक विधानसभा चुनाव हार जाते हैं. विधायकों के दोबारा पराजित होने की कई वजहें हो सकती हैं. लेकिन पहला कारण है, उनका वोटरों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाना. स्थानीय स्तर पर उभरने वाला विकल्प उनकी पराजय में अहम भूमिका अदा करता है. वोटर नए विकल्प आजमाता है और वहां से नया प्रतिनिधि विधानसभा में पहुंच जाते हैं. विधायकों की हार-जीत की एक और वजह होती है और वह है राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तर पर राजनीतिक मुद्दा. चुनावी इतिहास को देखें, तो ऐसे कई मौके आते हैं, जब किसी खास मुद्दे पर सवार होकर राजनीतिक पार्टियां अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतारती हैं और वह पुराने योद्धाओं को पराजित कर जीत का सेहरा बांधता है. हर चुनाव में विधानसभा का चेहरा बदल जाता है. ऐसा बड़ी संख्या में निवर्तमान विधायकों के पराजित हो जाने के चलते होता है. उनकी जगह नए चेहरे जीतकर आते हैं. 1995 में बने विधायकों में से 214 विधायक वर्ष 2000 का चुनाव हार गए. हारनेवाले विधायकों का प्रतिशत रहा 66.04. इसी तरह 2005 में चुनाव जीतने वाले विधायकों में 44 फीसदी 2010 का चुनाव नहीं जीत सके. विधायकों के हार-जीत की तसवीर दिलचस्प है.
हालांकि कई ऐसे विधायक हैं जो लगातार अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व भी कर रहे हैं. नए परिसीमन के आधार पर विधानसभा के चुनाव 2010 से शुरू हुए हैं. लेकिन पुराने परिसीमन के हिसाब-किताब को देखें तो 1995 के चुनाव में विधानसभा पहुंचने वाले विधायकों में से कई अगले चुनाव में रिपीट नहीं हो सके. उस समय विधानसभा में विधायकों की संख्या 324 थी. वर्ष 2000 के चुनाव में केवल 110 पुराने विधायक ही दोबारा विधानसभा पहुंचने में कामयाब हो सके. विधायकों के बड़ी संख्या में हार के पीछे कई कारण हो सकते हैं.
विधायकों के प्रति नाराजगी
विधायकों के दोबारा रिपीट नहीं होने की महत्वपूर्ण वजह उनके कामकाज को लेकर वोटरों में नाराजगी मानी जाती है. कई पूर्व विधायकों ने बातचीत में माना कि पांच साल के दौरान बहुत सारे काम के बावजूद लोगों को संतुष्ठ कर पाना बहुत मुश्किल होता है. किसी एक विधानसभा क्षेत्र में कई पंचायतें या वार्ड हैं और वहां की स्थानीय समस्याओं के निबटारे की अपेक्षा विधायकों से होती है.
लोग वार्ड काउंसिलर और विधायक के काम में फर्क नहीं कर पाते. आम वोटर समझते हैं कि सभी तरह की समस्याओं का समाधान विधायक के जरिय ही हो सकता है. इस दृष्टि से कहें, तो एक विधायक से बहुत अपेक्षा होती है. इस अपेक्षा को पूरा कर पाना किसी के लिए संभव नहीं है. अपेक्षा पूरी नहीं होने पर लोग दोबारा उस विधायक को वोट देना पसंद नहीं करते.
हार-जीत में राजनीतिक मुद्दों की बड़ी भूमिका
एक चुनाव से दूसरे चुनाव में विधायकों के रिपीट नहीं होने की एक और वजह है राष्ट्रीय व राज्य की राजनीति. 1995 में विधानसभा चुनाव पर मंडल-कमंडल की राजनीति का जबरदस्त असर कायम था.
लालू प्रसाद राज्य के मुख्यमंत्री थे और सामाजिक न्याय की राजनीति मुखर थी. उस चुनाव में जदयू को 167 सीटें मिली थी जबकि भाजपा को 41 सीटें. कांग्रेस के 29 विधायक चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. पर वर्ष 2000 आते-आते राजनीति की तसवीर बदल चुकी थी. जनता दल से टूटकर लालू प्रसाद ने राष्ट्रीय जनता दल बना लिया था. चुनाव हुआ तो राजद को 124 और जदयू को 21 सीटे मिलीं. भाजपा की सीटें बढ़Þकर 67 हो गई, तो कांग्रेस के विधायकों की संख्या घटकर 23 रह गई. जबकि 1990 में कांग्रेस के विधायकों की संख्या 71 थी और जनता दल के 122 विधायक चुनाव जीतकर आए थे.
2010 में हार गए थे 44 फीसदी पुराने विधायक
2005 के चुनाव में जीत हासिल करने वाले विधायकों में से करीब 44 फीसदी 2010 का चुनाव हार गए थे. हालांकि इन दोनों चुनावों में एक बड़ा फर्क चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन के चलते भी आया था.
2005 का चुनाव पुराने परिसीमन पर हुआ था जबकि 2010 में नए परिसीमन के आधार पर. परिसीमन की वजह से विधानसभा सीटों की सामाजिक संरचना भी बदल गई और उसका भूगोल भी. 2009 का संसदीय चुनाव नए परिसीमन के आधार पर ही हुआ था.
बहरहाल, 2010 के चुनाव की हार में राजनीतिक एजेंडा की प्रभावी भूमिका रही. गौर करें, 2005 में जदयू और भाजपा के पास क्रमश: 88 और 55 सीटे थीं, वह 2010 में बढ़Þकर 115 और 91 हो गई. इसका असर प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के विधायकों पर पड़ा और उनमें ज्यादातर विधायकों को हार का सामना करना पड़ा.
सीट बढ़ने-बचाने की जद्दोजहद
विधानसभा का यह चुनाव तीखे अंदाज में लड़ा जाएगा. इसकी पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी है. विकास बनाम विकास के दो मोरचे हैं और निश्चय ही दोनों गंठबंधनों की ओर से अपनी पुरानी सीटों को जीतने के अलावा उसमें इजाफे की रणनीति भी काम कर रही है. दोनों ओर से इसी ध्एय के साथ काम किया जा रहा है.
महागंठबंधन और राजग की ओर से 175 से अधिक सीटों पर जीत हासिल करने का लक्ष्य रखा गया है. वैसे, 243 सदस्ईय विधानसभा में सरकार बनाने के लिए किसी भी दल या गंठबंधन को 122 सीटों की जरूरत होगी. 2010 के चुनाव में जदयू-भाजपा ने मिलकर 206 सीटों पर जीत हासिल की थी.
दूसरी बार में हारे चुनाव
वर्ष     पराजित विधायक फीसदी
2000    214               66.04
2010    107               44.03
(नोट: वर्ष 2000 में विधानसभा की सदस्य संख्या 324 थी जबकि 2010 में 243. 2010 का चुनाव नए परिसीमन पर हुआ था.)






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