पढ़ाई की एैसी की तैशी, यहां कूड़े की ढेर में है बचपन

child in khachara siwanहोटल व ढावों में दो जून रोटी की जुगाड़ में पिस रहा बचपन
बाल श्रमिकों के पुनर्वास की नहींं व्यवस्था दुरूस्त
राजेश राजू,सीवान
बिहार कथा. कचड़े की ढेर मे बचपन कुछ इस तरह गुम हुआ कि शिक्षा की कौन कहे दो वक्त की रोटी के लिए कूड़ो की ढेर ही उनकी नियति बन चुकी है। लड़के घर से निकले तो देर रात वजनदार बोरी का भार उठाए लोटना कुछ मासूमों की दिनचर्या मे शामिल हो गया है। घर मे रोटी की चिंता ने तो मानो उनका बचपना ही छीन लिया हो। बस्ते की जगह कूड़े की भार ने तो उनकी जिंदगी के मायने ही बदल दिए है। शहर की गंदगी भरी गलियों को ले या कोई नाली का किनारा हो। हर जगह कुछ ऐसे मासूम दिखाई पड़ जाएगे जो अपना बचपन कूड़े चुनते बीता रहे है।
सुबह जब ऐसे नैनिहाल कूडे की ढ़ेर से कुछ बीनते हुए अपने बोरे में रख रहे थे। जैसे ही बिहार कथा संवाददाता ने उनसे प्रश्न किया तो वे बोले कि स्कूल नहीं जाते बल्कि कूड़े से निकाले गए समानों को कबाड़ी के हाथों बेचकर पैसा प्राप्त करते हैं तथा परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की व्यवस्था बीन रहे बच्चे निशा, विवक और पिंकी से जब यह पूछा गया की आखिर वो पढ़ाई क्यों नहीं करते ? उनका जवाब था कि जब पढ़ेगे तो घर का चूल्हा कैसे चलेगा। इन मासूमों के मुख से निकलता जवाब प्रशासन और सरकार को सीधे-सीधे कटघरे में खड़ा कर देता है। शासन-प्रशासन ने तो ऐसे ढ़ेर सारे उपाय किए लेकिन उन प्रयासों का भी कोई मतलब या परिणाम नहीं निकलता नजर आ रहा है। दो जून की रोटी की तलाश में पल-मल छिनता बचपन धीरे-धीरे अंधकारमय भविष्य की राह पर बढ़Þता जा रहा है। हाथ में कॉपी कलम की जगह कचरे के ढेर में तलाशते भविष्य या किर लोगो के जुठे बर्तन मांजकर अपने साथ परिजनों के भी पेट भरने की जद्दोजहद। शहर के व्यस्तम इलाका के होटलों में बाल श्रमिक है जिन्हे सुनहरे भविष्य की दरकार है। कई बाल श्रमिक यहां कॉपी व किताब की जगह प्लेट व थाली धोरक अपना पेट पाल रहे है। इनके पास अपना भविष्य कूड़े के ढेर की जगह कहीं और नही दिखता है। हाल है कि शहर से लेकर ग्रामीण इलाके तक के बजारों के होटल, चाय की दुकान व अन्य संस्थाओ मे काम करते बच्चे नजर आते है। खासकर बाल श्रमिको से काम लेना अपराध है। बाल श्रमिाकों से काम लेने वालों के खिलाफ बाल श्रम यानि की निषेध एवं विनियमन अधिनियम 1986 एवं अन्य कानूनों के तहत कठोर कार्यवाई करने के लिए प्रतिबद्ध है। बावजूद शहर एवं गांव के सभी दुकानदार बच्चों से काम लेते है। फिर भी विभाग व प्रशासन कुछ नहीं कर पाता है। वास्तविक स्थिति यह है कि पुनर्वास की व्यवस्था ठीक ढंग से नहीं होने से बच्चे होटलों एवं ढ़ावों में पहुॅच रहे है। सरकार ने वैसे सभी थानों, प्रशासनिक अधिकारी को ऐसे बच्चों को स्कूलों में नमांकन कराने की जिम्मेवारी सौंपी थी। पर यहां इस तरह किसी थाने द्वारा अंजाम देते हुए नही देखा गया है। किसी ने भी उस तरफ झाकते की कोशिश नहीं कि जहां ऐसे बच्चे अपने छोटी सी उम्र में नाजुक कंधो पर भारी भरकम बोझ उठाते हो। बाल श्रम उन्मूलन कार्यक्रमों का भी यहां कोई असर नहीं होता।






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