नरसंहारों ने बदला मध्य बिहार का राजनीतिक चरित्र

bihar symbolनवल किशोर
खून का बदला खून। कभी यही नारा गूंजता था मध्य बिहार के उन इलाकों में जहां नरसंहारों का लंबा दौर चला। आज स्थिति बदल चुकी है। लोग खून का बदला खून नहीं बल्कि लोकतांत्रिक तरीके से खुद पर हुए जुल्मो-सितम का बदला ले रहे हैं। हालांकि इसका एक पक्ष यह भी है कि रणवीर सेना के अभ्युदय ने जहां एक ओर सभी सवर्णों को एकजुट कर दिया, वहीं बहुसंख्यक दलित और पिछड़े विभिन्न पार्टियों में बंट गये। इसका असर राजनीति पर पड़ा है। वहीं आंशिक तौर पर यह बात भी सामने आयी है कि सवर्ण भी राजनीति में अपनी हिस्सेदारी बढाने के लिये समझौते करने लगे हैं। इसका प्रमाण राजद और जदयू से जुड़े सवर्ण नेताओं की जीत है, जिन्हें दलितों, पिछड़ों के अलावा सवर्ण वोट भी खूब मिलते हैं।
लेकिन यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं है कि नरसंहारों ने सामाजिक विकास में अहम भूमिका का निर्वहन किया है। जिन दिनों बिहार में खूनी संघर्ष शुरु हुआ था, यह वह दौर था जब भोजपुर में नक्सलवादी आंदोलन की नींव पड़ी। विशेषकर एकवारी गांव के जगदीश मास्टर साहब के नेतृत्व में वंचित तबके के लोगों ने सदियों से चली आ रहे सामंतवाद के विरुद्ध हिंसक रास्ता अख्तियार कर लिया तब मुखिया ने भी समांतर तरीके से अपने लोगों को एकजूट करना शुरु किया। समय के साथ नक्सलवादी घटनाओं ने लगभग पूरे बिहार को अपने चपेट में ले लिया। दलितों और पिछड़ों के हिंसक आंदोलन को गति प्रदान कर दी वर्ष 1990 में बिहार की सत्ता में आये लालू प्रसाद के बाद दलितों और पिछड़ों के राजनीतिक उत्थान ने। इस कालखंड में दलितों और पिछड़ों ने प्रतिरोध करना शुरु कर दिया।
इसकी बड़ी वजह यह भी रही तथाकथित तौर पर लालू प्रसाद ने बतौर मुख्यमंत्री खुलेआम विवादास्पद बयान दिया, “भूरा बाल साफ़ करो”। इस चार शब्द के वाक्यांश ने बिहार के जातीय संघर्ष को नयी दिशा दे दी। हिंसक वामपंथी उर्वरता पाकर पहले ही नक्सलवादी आंदोलन बड़ी तेजी से फ़ल-फ़ूल रहा था, वही लालू के बयान ने तो जैसे आग में घी डालने का काम कर दिया। हालांकि अनेक अवसरों पर लालू ने यह स्वीकार किया है कि उसने यह बयान नहीं दिया है और मीडिया ने तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया है। वही कई अवसरों ने इन्होंने यह भी कहा है कि ऐसा उन्होंने वंचित तबके को राजनीतिक और सामाजिक रुप से जागरूक होने के लिये कहा था।
लालू के सामाजिक न्याय के आगे वामपंथी ताकतें दम तोड़ने लगी थीं। जिन दलितों और पिछड़ों के कंधे पर वे बंदूक रखकर अपनी दुकानदारी चला रहे थे, उनलोगों ने लालू को एक नये मसीहे के रुप में महसूस किया। वामपंथी आंदोलन जो जमीनी स्तर पर जनसमर्थन मिला करता था, वह खत्म होने लगा था। ब्रह्मेश्वर मुखिया ने इसी मौके का फ़ायदा उठाया। उन्हीं दिनों वर्ष 1993-94 के दौरान उसने अपने पूर्व के किसान संगठन (जो उसने वर्ष 1974 के आसपास खड़ा किया था) को रणवीर सेना की संज्ञा दी। व्यापक पैमाने पर उसने मध्य बिहार और विशेषकर भोजपुर के कई इलाकों में दलितों और पिछड़ों को गाजर-मूली की तरह काट डाला। रणवीर सेना द्वारा किये हर आपरेशन इसकी नृशंसता की गवाही देते हैं। सबसे अधिक दिलचस्प यह है कि बिहार में खूनी संघर्ष का अंत 16 जून 2000 को औरंगाबाद जिले के गोह प्रखंड के मियांपुर गांव में घटित हुए नरसंहार से हुआ। इस घटना में यादव जाति के 33 लोग मारे गये थे। मियांपुर के लोग इस बात को बड़ी मजबूती के साथ रखते हैं कि पूर्व के अन्य नरसंहारों के बाद नक्सलियों ने बदला लेने की कार्रवाई की लेकिन मियांपुर नरसंहार का बदला लेने में नक्सलियों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी। इसकी वजह यह थी कि मियांपुर में केवल यादव मारे गये थे। मियांपुर के लोगों के इस आरोप का जवाब नक्सलियों की ओर से आजतक नहीं दिया गया। इस प्रकार यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि मियांपुर नरसंहार के बाद नक्सलियों की खामोशी ने नक्सलियों पर से पिछड़ों के विश्वास को खत्म कर दिया और उसके पांव तेजी से उखड़ने लगे। आज यह सच्चाई भी है कि बिहार में नक्सली अब लोगों की लड़ाई नहीं बल्कि अपने अस्तित्व के लिये ल्ड़ाई लड़ रहे हैं, जिसका जनता से कोई सरोकार नहीं है।
बिहार में जातीय संघर्ष कोई नया नहीं था। इसका एक उदाहरण वर्ष 2009 में डी बंद्योपध्याय द्वारा दिये गये भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1965 से लेकर वर्ष 1985 तक के बीच जो नरसंहार हुए, उनका मूल कारण भूमि सुधार की समस्त्या थी। अपनी रिपोर्ट के प्रारंभ में ही डी बंद्योपध्याय ने स्पष्ट किया कि बिहार आज भी बमों के ढेर पर टिका है, जिसमें कभी भी आग लग सकती है। यह बंद्योपध्याय का साहस था कि उन्होंने अपनी रिपोर्ट में सारे नरसंहारों के सामाजिक पृष्ठभूमि का वर्णन किया। मसलन यह कि किस नरसंहार में किस जाति के लोग आक्रमणकारी थे और किस जाति के लोगों का रक्त बहा। इनकी रिपोर्ट को देखें तो अधिसंख्य मामले आक्रमणकारी जाति की सूची में कुर्मी जाति का उल्लेख मिलता है। संभवतः यही वजह रही होगी कि नीतीश सरकार ने इस रिपोर्ट को ठंढे बस्ते में डाल दिया।
ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि कुर्मी जाति और सामंती तबके के बीच गहरा याराना रहा करता था। लेकिन लालू के आगमन के बाद यह यारी टूट गयी। यारी टूटने के बाद कुर्मी स्वयं को ओबीसी में शामिल न रख सके। वे लालू के यादवी नेतृत्व को चुनौती देने लगे थे। बाद में जब 15 वर्षों के बाद लालू की सत्ता से विदायी हुई तो इसके पीछे भी कुर्मी और उनके पुराने मित्रों का गठबंधन ही मुख्य वजह बना।
बाद में जब नीतीश कुमार सत्ता में आये तब उन्होंने रणवीर सेना को लेकर लालू प्रसाद द्वारा गठित जस्टिस अमीरदास आयोग को भंग कर दिया। इसके अलावा नीतीश सरकार ने भूमिहारों के मसीहा कहे जाने वाले ब्रहमेश्वर मुखिया को तकरीबन हर आरोप से मुक्त कर दिया। उसे पिछले वर्ष जेल से रिहा कर दिया था। जबकि बथानी टोला नरसंहार के मामले में नीतीश सरकार ने अदालत को यह कहकर गुमराह किया कि वह फ़रार है। इस आधार पर उसके केस को मुख्य केस से अलग कर दिया। यही वजह रही कि जब आरा की निचली अदालत ने बथानी टोला के अभियुक्तों को सजा सुनाया तब उसमें ब्रह्मेश्वर मुखिया का नाम नहीं था। हालांकि बाद में अप्रैल महीने में पटना हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फ़ैसले को रद्द करते हुए सभी आरोपियों को बरी कर दिया।
हाईकोर्ट के फ़ैसले ने बिहार सहित पूरे देश में खलबली मचा दी। लोगों ने न्यायालय पर सवालिया निशान लगाते हुए अपनी प्रतिक्रियायें दीं। सामूहिक प्रतिक्रिया यह रही कि जब सब बरी हो गये तो फ़िर बथानी टोला के लोगों की बर्बर हत्या किन लोगों ने की थी? इस फ़ैसले के बाद बिहार की राजनीति में भूमिहारों का वर्चस्व एक बार फ़िर जगजाहिर होने लगा। खास तौर पर नीतीश सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल एक भूमिहार मंत्री गिरिराज सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि यदि राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के फ़ैसले को चुनौती दी तब इससे बिहार का माहौल खराब होगा।
बहरहाल नरंसहारों का सच हृदयविदारक है और इससे भी अधिक हृदयविदारक है नरसंहारों के मामले में न्यायपालिका के फ़ैसले। एक के बाद एक सभी नरसंहारों के आरोपी निर्दोष करार दिये गये। हाल ही में कोबरा पोस्ट के एक स्टिंग आपरेशन ने न्यायपालिका के फ़ैसले को चुनौती दे दी। अपनी रिपोर्ट में कोबरा पोस्ट ने सुशील कुमार मोदी, शिवानंद तिवारी, डा अरुण कुमार सिंह और अनेक भाजपाई नेताओं का सच सामने ला दिया। वैसे सबसे बड़ी सच्चाई यही है कि आज की सूबाई राजनीति बिल्कुल अलग दिशा की ओर अग्रसर है। रणवीर सेना पर लगाम लगाने वाले लालू प्रसाद और रणवीर सेना को बेदाग बनाने वाले नीतीश कुमार दोनों एक-दूसरे के साथ हैं, जबकि रणवीर सेना को संरक्षण देने वाले भाजपाईयों को भी रामविलास पासवान, जीतन राम मांझी और उपेन्द्र कुशवाहा का साथ है। वैसे यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि नरसंहारों का सीधा असर बिहार की राजनीति पर पड़ेगा। वैसे इसके परिणाम विविधतापूर्ण होंगे, जिनमें इन नरसंहारों में मारे गये लोगों के परिजनों का क्रंदन भी शामिल होगा।
लालू राज में रणवीर सेना के द्वारा किये गये नरसंहारों की सूची
घटना की तिथि घटना स्थल मृतकों की संख्या
29 अप्रैल 1995 खोपिरा, संदेश, भोजपुर 5
25 जुलाई 1995 सरथुआं, उद्वंतनगर, भोजपुर 6
5 अगस्त 1995 नूरपुर, बड़हरा, भोजपुर 6
7 फ़रवरी 1996 चांदी, चरपोखरी, भोजपुर 4
9 मार्च 1996 पतलपुरा, सहार, भोजपुर 3
22 अप्रैल 1996 नोनूर, सहार, भोजपुर 5
5 मई 1996 नाड़ी, सहार, भोजपुर 3
19 मई 1996 नाड़ी, सहार, भोजपुर 3
25 मई 1996 मोरथ, उदवंतनगर, भोजपुर 3
11 जुलाई 1996 बथानी टोला, सहार, भोजपुर 21
25 नंवबर 1996 पुरहरा, सहार, भोजपुर 4
12 दिसंबर 1996 खनेट, संदेश, भोजपुर 5
24 दिसंबर 1996 एकवारी, सहार, भोजपुर 6
10 जनवरी 1997 बागड़, तरारी, भोजपुर 3
31 जनवरी 1997 माछिल, मखदुमपुर, जहानाबाद 4
26 मार्च 1997 हैवसपुर, बिक्रम, पटना 10
28 मार्च 1997 आकोपुर, अरवल, जहानाबाद 3
10 अप्रैल 1997 एकवारी, सहार, भोजपुर 9
11 मई 1997 नगरी, चरपोखरी, भोजपुर 10
2 सितंबर 1997 खड़ासिन, करपी, जहानाबाद 8
23 नवंबर 1997 कटेसर, करपी, जहानाबाद 6
31 दिसंबर 1997 लक्ष्मणपुर बाथे, अरवल*, जहानाबाद 59
25 जुलाई 1998 ऐयारा, रामपुर, करपी, जहानाबाद 3
25 जनवरी 1999 शंकरबिगहा, अरवल*, जहानाबाद 23
10 फ़रवरी 1999 नारायणपुर, मखदुमपुर, जहानाबाद 12
21 अप्रैल 1999 सिमदानी, बेलागंज, गया 3
28 मार्च 2000 सोनबरसा, चरपोखरी, भोजपुर 3
16 जून 2000 मियांपुर, गोह, औरंगाबाद 33
रणवीर सेना द्वारा मारे गये लोगों की कुल संख्या 282

from : http://apnabihar.org/






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