विकास हुआ पर बदहाली बाकी
संजय कुंदन
इन दिनों देश की नजर बिहार पर टिकी है। कुछ ही महीने बाद यहां विधानसभा चुनाव होने हैं। राजनीतिक पंडितों में उत्सुकता है कि क्या हमेशा की तरह एक बार फिर यह राज्य कोई बड़ा सियासी उलटफेर करने जा रहा है? क्या लोकसभा चुनाव से जारी बीजेपी का विजय अभियान यहां थम जाएगा और पस्त पड़े विपक्ष में नई जान आएगी? राजधानी शहर पटना पोस्टरों से सज गया है लेकिन न जाने क्यों लोगों में वह सियासी गर्मजोशी और उत्तेजना नहीं दिखाई दे रही, जो कभी इस शहर की पहचान हुआ करती थी। महानगरीय तटस्थता और उदासीनता अब शायद यहां भी अपनी जड़ें जमाने लगी है।
इसका एक कारण शहर का चरित्र का बदलना भी है। पटना का सामाजिक-आर्थिक जीवन पिछले दो दशकों में बड़ी तेजी से बदला है। पूरे पटना में आप जिधर भी नजर दौड़ाएं, आपको निजी अस्पताल नजर आएंगे। गली-गली में छोटे-बड़े नर्सिंग होम। पटना का दक्षिणी हिस्सा यानी बाईपास के पार वाला इलाका अस्पतालों के हब जैसा दिखता है। एक से एक अस्पतालों के बोर्ड दूर से नजर आते हैं। सड़कों पर सायरन बजाती, माहौल में भय घोलती ऐम्बुलेंस दौड़ती रहती हैं। पटना में ऐम्बुलेंस रखना एक फायदेमंद धंधा माना जा रहा है। बड़ी पूंजी वाले नर्सिंग होम खोल लेते हैं तो छोटी पूंजी वाले एक-दो ऐम्बुलेंस रख लेते हैं। शुरू में तो लोगों ने सामान्य गाड़ियों को ही ऐम्बुलेंस का रूप दे दिया। लेकिन अभी सस्ती ऐम्बुलेंस बनाई-बनाई आती हैं।
मैंने अपने पड़ोस के तीन-चार मकानों के आगे ऐम्बुलेंस खड़ी देखी। पता चला कि मेरे पड़ोसियों के लिए यह ह्यसाइड बिजनसह्ण है। उन्होंने कई निजी अस्पतालों के गार्डों, वार्ड बॉय और यहां तक कि रिक्शावालों को भी अपना मोबाइल नंबर दे रखा है। कभी भी उनका फोन आ सकता है। ए ऐम्बुलेंस पटना में ही नहीं, सौ दौ सौ किलोमीटर दूर आसपास के शहरों में भी जाती हैं और अच्छा-खासा किराया वसूलती हैं। पटना के निजी अस्पतालों में ज्यादातर मरीज आसपास के शहरों से आते हैं। बिहार के छोटे शहरों-कस्बों की सड़कें सुधर चुकी हैं इसलिए कुछ घंटों में पटना पहुंचना आसान हो गया है। सुना है, पटना के बाहर से कोई ऐम्बुलेंस महात्मा गांधी सेतु पर पहुंचती है, तो उसे अस्पतालों के दलाल घेर लेते हैं और अपने-अपने हॉस्पिटल में चलने का आग्रह करते हैं।
पटना के किसी डॉक्टर का विजटिंग कार्ड देखिए। पता चलेगा, एक डॉक्टर पांच से दस निजी अस्पतालों का कंसल्टेंट है। दूसरी तरफ पटना में एम्स जैसा संस्थान खुल चुका है। इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान के अलावा पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल (पीएमसीएच) जैसे सरकारी अस्पताल हैं, जिनमें हर समय भारी भीड़ लगी रहती है। पिछले दिनों मैं पीएमसीएच के ब्लड बैंक पहुंचा तो वहां मेरे पीछे दो कुत्ते लग गए जो मेरे साथ डॉक्टर के कक्ष में भी घुस गए। लेकिन पटना की एक और तस्वीर भी है। आपकी नजर अस्पतालों से हटेगी तो जाकर टिकेगी कोचिंग संस्थानों पर।
यह धंधा भी यहां खूब फल-फूल रहा है। गली-गली में कोचिंग इंस्टीट्यूट खुले हैं जो मेडिकल, इंजिनियरिंग और दूसरी प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करवाते हैं। कई तो कोटा (राजस्थान) स्थित कोचिंग संस्थानों में ऐडमिशन के लिए कोचिंग करवाते हैं। ऐसे इंस्टीट्यूट खोलना कोई मुश्किल काम नहीं है। आपके पास दो-चार कमरे होने चाहिए। फिर कुछ बेरोजगार साएंस ग्रैजुएट पकड़ लीजिए। दरअसल आनंद कुमार के ह्यसुपर थर्टीह्ण की सफलता ने इन संस्थानों के लिए एक माहौल तैयार किया है। इनमें भी बिहार के छोटे शहरों-कस्बों और गांवों तक के छात्र आते हैं। पटना के बच्चे इनमें कम ही पढ़ते हैं। वे आमतौर पर दिल्ली या दूसरे शहरों का रुख करते हैं।
पटना की यह नई तस्वीर विकास के असंतुलन को दशार्ती है। निस्संदेह, नीतीश राज में राज्य की हालत बदली है। लॉ ऐंड आॅर्डर की स्थिति सुधरी है। सड़कें बेहतर हो गई हैं। जो संपन्न वर्ग पहले डर के मारे अपने पैसे नहीं निकालता था, वह अब इसे कारोबार में लगाना चाहता है। लेकिन सवाल है कि लगाए कहां। कुछ लोगों ने रियलिटी सेक्टर में पैसे लगाए हैं। पर उसकी सीमा है। उद्योग-धंधे के लिए जिस इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है, उसका अब भी अभाव है। सबसे बड़ी मुश्किल बिजली की है। बड़े उद्योग लगते हैं तो उससे कई छोटे-मोटे धंधे पनपते हैं। कुछ नई सेवाओं की जरूरत पड़ती है। बिहार में ऐसा नहीं हो पा रहा। ऐसे में जो बुनियादी जरूरत की चीजें हैं, उनमें ही थोड़ा बहुत निवेश हो पा रहा है।
स्वास्थ्य और शिक्षा वैसे ही क्षेत्र हैं। अगर बिहार के हर हिस्से में अच्छे अस्पताल होते तो लोगों को पटना आने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव ने पटना में नर्सिंग होम का व्यवसाय पैदा कर दिया है। वही हाल शिक्षा का है। आगे बढ़Þने और तरक्की की चाह में अब वह तबका भी अपने बच्चे की कोचिंग पर पैसे खर्च कर रहा है, जो पहले नहीं करना चाहता था। पटना के कोचिंग संस्थानों में पढ़ रहे लड़के दूसरे राज्यों में पढ़ने जाएंगे। लेकिन पढ़कर लौटने के बाद अपने राज्य में कोई रोजगार उन्हें शायद ही मिल पाएगा। बिहार का बदला सामाजिक-आर्थिक यथार्थ अगले चुनाव या आगे की राजनीति को कितना प्रभावित कर पाएगा, कहना कठिन है। लोग बदल गए हैं, धंधा बदल गया है लेकिन सियासत में मुहावरा अब भी जात-पांत वाला ही चल रहा है। from http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/nbteditpage/entry/there-is-imbalance-in-bihar-s-development
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