बिहार के विकास की नई बिसात
तीरविजय सिंह, वरिष्ठ स्थानीय संपादक, हिन्दुस्तान, पटना
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने तीसरे बिहार दौरे से सूबे में विकास के नए सपने संजो गए। सवा लाख करोड़ रुपये का विशेष पैकेज देकर उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि बिहार का विकास उनकी प्राथमिकता है। उन्होंने कहा भी कि बिहार के पास असीमित क्षमता है, यह पूरे देश को मजबूती दे सकता है। और भारत तभी पूरी तरह विकसित होगा, जब देश का पूर्वी भाग विकसित हो पाएगा। खेती-किसानों के हित में नए शोध केंद्र, फिशरी फार्म, बीज उत्पादन व गोदामों के निर्माण की बात कही। शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में स्किल यूनिवर्सिटी की स्थापना, केंद्रीय विश्वविद्यालय तथा आईआईएम बोधगया और डिजिटल बिहार के लिए धन की घोषणा करके जहां बिहार में मानव संसाधन को मजबूती देने की मोदी ने इच्छाशक्ति दिखाई, वहीं हाई-वे तथा ग्रामीण सड़कों, बिजली, एयरपोर्ट और पेट्रोलियम तथा गैस परियोजनाओं को महत्व देकर बिहार में आधारभूत संरचनाओं के विकास का खाका खींचा। यानी गांवों को डिजिटल इंडिया का हिस्सा बनाने के लिए हाई-वे, रेलवे, एयर-वे के साथ इंटरनेट-वेके लिए भी सौगातें दीं।
यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री ने जिसे बिहार के विकास के लिए विशेष पैकेज का नाम दिया, उसे विपक्ष ने पुरानी योजनाओं की री-पैकेजिंग तथा जुमला बताकर खारिज करने की कोशिश की। कुछ दिनों पहले तक मात्र 50 हजार करोड़ रुपये के विशेष पैकेज की बात सुनने-पढ़ने को मिल रही थी। भीड़ से संवाद बनाने के क्रम में आरा के मंच से प्रधानमंत्री ने जब यह पूछना शुरू किया कि कितना दे दूं? 50 हजार करोड़ या ज्यादा करूं, 60… 70… तभी लग गया कि पैकेज का साइज बड़ा होगा और अंत में प्रधानमंत्री के मुंह से निकला 125 करोड़। प्रधानमंत्री मोदी की इस शैली पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दोहरी आपत्ति जताई। एक तो यह कि पीएम ने बोली लगाकर बिहार का मजाक उड़ाया है तथा दूसरा यह कि कुछ भी नया नहीं दिया। लोगों ने यह भी सुनाए कि अपने को प्रधानमंत्री की बजाय प्रधान सेवक मानने वाले नरेंद्र मोदी बिहार में आकर दाता कैसे और क्यों बन गए? इसे लेकर पक्ष-विपक्ष, दोनों के अपने तर्क-कुतर्क हैं। बावजूद इसके सवा लाख करोड़ तथा पहले से जारी 40 हजार करोड़ रुपये के कार्यों को जोड़कर मोदी ने जब 165 लाख करोड़ रुपये की विकास योजनाओं का हिसाब बताया, तो तमाम लोगों को लगा कि अब बिहार के दिन फिरेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के आरा से सहरसा पहुंचने तक विपक्ष ने उनकी घोषणाओं पर असंतोष जताते हुए झूठ तक कह दिया। डिजिटल संचार के जमाने में नरेंद्र मोदी तक यह बात पहुंचने में देर नहीं लगी। सहरसा के मंच पर उन्होंने तंज कसते हुए यह जता भी दिया कि अब पत्रकारों को बुलाकर कहा जाएगा कि यह सब पुरानी योजनाएं हैं।
लोकतंत्र के लिए यह रार अच्छा संकेत है। सूबे की विकास योजनाओं पर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के बीच मीठी तकरार वाजिब और जरूरी है। बिहार के विकास और तरक्की की अकुलाहट अगर केंद्र व राज्य की सरकार में बराबर की है, तो फिर बिहार के अच्छे दिन जरूर आएंगे और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी गर्व से कह सकेंगे कि बढ़ चला बिहार। झारखंड के अलग होने के बाद से बिहार के पास आय के स्त्रोत सीमित रह गए। ध्वस्त स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, सड़क और कानून-व्यवस्था को पटरी पर लाने में नीतीश सरकार ने पिछले दस सालों में शानदार कामयाबी हासिल की है। यह भी सही है कि इन दस में से आठ वर्ष तक भाजपा भी सरकार में उनके साथ रही। धन चाहे केंद्रीय खाते से मिला हो या फिर वैश्विक संस्थाओं से, उनका सही जगह पर संतुलित इस्तेमाल करके बिहार ने तरक्की के नए मुकाम हासिल किए हैं। बिहार को विकसित बनाने की धुन में नीतीश कुमार ने विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने का अभियान छेड़ा। इस मुद्दे पर केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार टालमटोल करती रही, इस बीच भाजपा से संबंध-विच्छेद से नई सरकार से भी बहुत उम्मीद नहीं रही। बात सिर्फ राजनीतिक वादों-नारों तक सिमटकर रह गई।
बहरहाल, बिहार की विकास-गाथा की चर्चा के संदर्भ में वर्ष 2005 से पहले के बिहार को याद करना जरूरी हो जाता है। तब से पिछली तीन सरकारें लालू प्रसाद यादव अथवा उनकी पत्नी राबड़ी देवी के नेतृत्व में चलीं। राज्य के पिछड़ेपन, लचर कानून-व्यवस्था, अराजकता आदि के मुद्दे पर नीतीश कुमार 2005 में लालू-राबड़ी सरकार से सत्ता की चाबी छीनने में कामयाब हुए थे। सीमित संसाधनों में भी नीतीश कुमार ने प्रदेश के विकास को गति दी। साथ ही वोट की राजनीति के जरिए लालू प्रसाद को कोसते हुए विभिन्न वर्गों में अपना जनाधार भी बढ़ाया। उनके इस पूरे पराक्रम में बिहार भाजपा के नेता भी हमराह रहे। फिर 2014 के लोकसभा चुनाव परिणामों ने ऐसा झटका दिया कि नरेंद्र मोदी की लहर को रोकने के लिए दोनों राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मजबूर होकर एक हो गए। ये दोनों नेता यही कहते हैं कि सांप्रदायिक शक्तियों को रोकने के नाम पर, भाजपा को रोकने के लिए हमलोग एक हुए हैं।
दरअसल, यह भी एक पैकेज की ही बात हुई। दोनों नेताओं ने अपने समर्थकों के संख्या बल को आंकते हुए भाजपा से आगे निकलने का रास्ता ढूंढ़ा। जद यू-राजद-कांग्रेस गठबंधन मजबूत भी दिखने लगा। मुकाबले के लिए मजबूरी में भाजपा ने जीतन राम मांझी को एनडीए में शामिल किया, ताकि जातीय-वर्गीय मतदाताओं के अंकगणित में वह महागठबंधन से पिछड़ न जाए। ऐसे में, राजद-जद(यू) गठबंधन ने बिहार के विकास की अनदेखी और हकमारी का मुद्दा उठाना शुरू कर दिया। इस बीच प्रधानमंत्री द्वारा विशेष पैकेज की घोषणा नीतीश कुमार और लालू प्रसाद को मुद्दा विहीन करने की एक रणनीति मानी जा रही है। एक अच्छी बात यह भी है कि विशेष राज्य के दर्जे के तहत मिलने वाली टैक्स छूट की दिशा में केंद्र सरकार ने एक कदम आगे बढा़या है। सोमवार को जारी अधिसूचना में केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने बिहार के 21 जिलों में औद्योगिक निवेश पर आयकर में 15 फीसदी छूट की घोषणा कर दी है। इससे सूबे में औद्योगिक वातावरण को जरूर बल मिलेगा।
बिहार के विकास पर मचे राजनीतिक घमासान में सबसे ताजा दांव यह है कि एक बार फिर नीतीश कुमार समेत पूरे विपक्ष ने गेंद भाजपा के पाले में डाल दिया है। फिलहाल विधानसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार को यह साबित करना मुश्किल होगा कि जिन योजनाओं की प्रधानमंत्री ने घोषणा की है, उनके लिए उनकी सरकार के पास वित्तीय क्षमता भी है। इसकी वजह भी है। एक तो बजट में इन नई घोषणाओं के लिए प्रावधान नहीं किए गए हैं। यदि सरकार कहती है कि नहीं, पहले से धन की व्यवस्था कर ली गई थी, तो फिर नीतीश कुमार की इस बात को काटना मुश्किल होगा कि योजनाएं पुरानी हैं, सिर्फ री-पैकेजिंग की गई है। बिहार चुनाव से पहले लेखानुदान भी मुश्किल है। ऐसे में, एक ही रास्ता है कि संसद के मानसून सत्र की विस्तारित बैठक बुलाने का जो विकल्प मोदी सरकार ने खुला रख छोड़ा है, उस पर अमल करते हुए वह संसद सत्र बुलाकर बिहार के लिए घोषित पैकेज को वित्तीय वैधानिकता प्रदान करे। – साभार-लाइवहिंदुस्तान डॉट कॉम से
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