मंडल आयोग: 25 साल की दास्तां
शशि शेखर
हर साल 15 अगस्त के आसपास लोग कुछ शौक, कुछ जुनून अथवा आदतन स्वतंत्रता के अर्थ-अनर्थ पर चर्चा करते हैं। इस बार सामाजिक आजादी पर क्यों न बात की जाए? इसकी वजह है, मौका है और दस्तूर भी। कम लोगों को याद होगा। मंडल आयोग की सिफारिशें सात अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस से मात्र हफ्ता भर पहले लागू की गई थीं। इस साल इन सिफारिशों ने अपनी रजत जयंती मना ली है। यह बहस इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि हमारे पुरखों ने सिर्फ राजनीतिक प्रभुसत्ता हासिल करने का सपना नहीं देखा था। हजारों साल से हमारे यहां कहा जाता रहा है –
‘ॐ संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्,
देवा भागम् यथा पूर्वे संजानाना उपासते।।’
यानी हम सब साथ-साथ चलें, प्रेमपूर्वक वातार्लाप करें, हमारे मन एक हों। जिस प्रकार हमारे विद्वान पूर्वज सौहार्दपूर्ण रहते थे, उनका अनुसरण करते हुए उसी प्रकार साथ रहें…।
क्या हम ऐसे हैं?
राजनीति से बात शुरू करते हैं। 1950 और 60 के दशक में अधिकांश राज्यों में सवर्ण मुख्यमंत्री थे। उन दिनों किसी दलित अथवा पिछड़े का इस पद पर पहुंचना नामुमकिन लगता था। तमिलनाडु में अन्नादुरै, उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह, बिहार में कपूर्री ठाकुर जैसे नेता तमाम राज्यों में इस एकाधिकारवाद को चुनौती दे रहे थे। उनकी लड़ाई रंग लाई। मामला उलट गया है। इन दिनों सवर्णों को मुख्यमंत्री बनाने से पहले तमाम तरह की चर्चा की जाती है। पहले पिछड़ों के लिए ऐसा मंथन होता था।
अब सत्ता की कुंजी उनके पास है, जिनके पास संख्या बल है। आप पूछ सकते हैं कि सामाजिक आजादी की बात करते-करते मैं राजनीति की गलियों में क्यों भटक रहा हूं? बता दूं। राजनीति और समाज एक सिक्के के दो पहलू हैं। कोई भी सामाजिक परिवर्तन राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना आकार नहीं ले सकता।
भारतीय राजनीति में पिछड़ों के लिए दरवाजे खोलने की शुरुआत जवाहरलाल नेहरू के समय में हुई थी। उन्होंने 29 जनवरी, 1953 को पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। इसके पहले अध्यक्ष काका कालेलकर थे। उनकी अगुवाई में लगभग दो साल के विचार मंथन के बाद आयोग ने 30 मार्च, 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। यह रिपोर्ट विचार के स्तर पर ही दम तोड़ गई, क्योंकि हमारे सत्ता सदनों में बैठे लोग हसीन सपने बेचना बखूबी जानते हैं। उन्हें अमलीजामा पहनाने के मामले में उनका रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है। कालेलकर की रिपोर्ट अंतर्विरोधों की उपज थी। उसके अनेक सदस्य इससे असहमति दर्ज करा चुके थे। इसीलिए उसकी संस्तुतियों से उपजी चिनगारी को शोला बनने में लंबा समय लगा।
ईस्वी सन 1955 से जो सिलसिला शुरू हुआ, वह जोर पकड़ता गया। 20 दिसंबर, 1978 को मोरारजी देसाई ने संसद में बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अगुवाई में नए आयोग की घोषणा की। मंडल आयोग ने 21 मार्च, 1979 को अपना काम शुरू किया। आयोग ने 12 दिसंबर, 1980 को अपनी रिपोर्ट को अंतिम स्वरूप दे दिया। तब तक केंद्र में सत्ता बदल चुकी थी। जवाहरलाल नेहरू की सुपुत्री इंदिरा गांधी सत्ता में थीं। उनके मंत्रिमंडल में आयोग के प्रस्तावों को मूर्त रूप देने पर कई तरह के आग्रह-दुराग्रह थे। मंडल आयोग ने 11 प्रकार की सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक कसौटियों पर जातियों को परखा था। गहन शोध के बाद आयोग ने पाया था कि देश में इस समय कुल 3,743 पिछड़ी जातियां हैं। यह भारतीय आबादी का कुल जमा 52 प्रतिशत हिस्सा था। इसके लिए 1931 की जनगणना को आधार बनाया गया था। इससे पूर्व कालेलकर आयोग ने 2,399 जातियों को पिछड़ा और इनमें से 837 को अति पिछड़ा माना था।
मंडल आयोग ने सरकारी नौकरियों में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछडे़ वर्गों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की। अनुसूचित जाति-जनजाति को पहले से ही 22.5 प्रतिशत आरक्षण हासिल था। मतलब, अगर यह सिफारिश मान ली गई, तो देश में लगभग 49.5 फीसदी सरकारी नौकरियां आरक्षित वर्ग के कोटे में चली जानी थीं। ऐसी खबरें छपने के बाद पूरे देश में प्रतिक्रिया हुई, पर वह कभी सार्वदेशिक आकार न ले सकी। बाद में 13 अगस्त, 1990 को वी पी सिंह की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने इसे लागू करने की अधिसूचना जारी की।
इस बार विरोध की लपटें बहुत ऊंची उठीं। देशव्यापी आंदोलन शुरू हो गया। ऊंची जाति के छात्रों को लगता था कि उनके लिए प्रगति के अवसर सदा-सर्वदा हेतु अवरुद्ध कर दिए गए हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक छात्र राजीव गोस्वामी ने तो पूरे देश की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। उसने सरेआम खुद को आग लगा ली। भारतीय जनता-जनार्दन के जीवन में उन दिनों टीवी का दखल शुरू हो रहा था। एक वीडियो मैगजीन ने इसे छोटे परदे पर दिखाया। वे झकझोर देने वाले दृश्य थे। एक हंसता-मुस्कराता नौजवान कैसे चलते-फिरते कंकाल में तब्दील हो जाता है। पुलिस किस तरह उसे घसीटकर ले जा रही है और राजधानी में आक्रोश कैसे ज्वार का रूप धारण कर रहा है! यह सब छोटे परदे पर देखना दर्दनाक और गुस्सा दिलाने वाला था। गोस्वामी उस समय तो बच गया, पर असहाय हाल में 14 साल बाद उसकी मौत हो गई। उसी दौरान एक और छात्र सुरेंद्र सिंह चौहान ने भी आत्महत्या कर ली थी। देश भर के तमाम हिस्सों से उन दिनों हिंसा की खबरें आतीं। कई जगह कर्फ्यू लगाना पड़ा। उन्हीं दिनों राम जन्मभूमि आंदोलन भी जोर पकड़ रहा था। जातीय अलगाव और धार्मिक नफरत के मिले-जुले भावों ने सामाजिक ताने-बाने को जैसे ग्रस लिया था। इन घटनाओं से दिल्ली की हुकूमत हिली जरूर, पर उसने अपना फैसला नहीं बदला। गोस्वामी कांड के बाद 25 सितंबर, 1991 को अलबत्ता कुछ संशोधन जरूर किए गए। यह सिर्फ जले पर अल्पकालिक आराम वाला मरहम लगाने जैसा था।
कहने की जरूरत नहीं कि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू हुए 25 साल हो गए हैं और इस दौरान सरकारी दफ्तरों में समूची पीढ़ी इन सिफारिशों के तहत भर्ती होकर बदल चुकी है। इससे लाखों लोगों को आर्थिक आजादी हासिल हुई। यहां हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के ऐसे तत्व पर प्रकाश डालना चाहूंगा, जिस पर हम गर्व कर सकते हैं। मंडल आयोग की सिफारिशों के क्रियान्वयन के बाद सामाजिक एकता में जो दरार दिखने लगी थी, वह जल्द भर गई। वह उदारीकरण की शुरुआत का समय भी था। वीपी के बाद सत्तानशीं हुए नरसिंह राव ने अपने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के साथ आर्थिक सुधारों की शुरुआत की। इससे मुल्क में नई आर्थिक चेतना आनी शुरू हुई। भारतीय कॉरपोरेट नए ढर्रे को अपनाने लगे और विदेशी कंपनियों ने भारत में पांव पसारने शुरू कर दिए। नए कॉरपोरेट और कारोबारी माहौल के चलते सवर्णों के लिए भी नौकरी के नूतन दरवाजे खुले। क्या इतना काफी है? यह जानना दुखद है कि इन सिफारिशों के लागू होने के बावजूद बड़ी संख्या में अगड़े और पिछड़े बेरोजगार हैं। सरकारें पर्याप्त मात्रा में रोजगार सृजित करने में नाकामयाब साबित हो रही हैं। हम एक कृषि प्रधान देश रहे हैं, परंतु आबादी के विस्तार के साथ खेती-किसानी का सामर्थ्य सिमटा हुआ नजर आता है। बेरोजगारों की बढ़Þती तादाद और हर वर्ग में फैलती बदहाली आजाद भारत की सबसे बड़ी चुनौती है। यह चुनौती एक सवाल भी खड़ा करती है कि क्या आरक्षण हर मर्ज की दवा है? हिंदुस्तान से साभार
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