बिहार में चुनाव की कसौटी पर सामाजिक न्याय
महाभारत में एक प्रसंग है : युद्ध के बाद कृष्ण अर्जुन को लेकर घटोत्कच के बेटे ‘ बर्बरीक’ के कटे सिर के पास जाते हैं. बर्बरीक के सिर से कृष्ण पूछते हैं कि युद्ध कौन लड़ रहा था . जवाब मिला कि ‘ दोनो ओर से ‘ महाकाल’ युद्ध लड रहे थे.’ महाभारत के इस प्रसंग का बिहार के चुनाव के सन्दर्भ में एक पाठ किया जा सकता है. मुख्य रूप से चुनाव मैदान में दिख रहे दोनो गठबन्धनों के महारथियों नीतीश कुमार –लालू यादव –शरद यादव ( जद यू –राजद गठबंधन) और मोदी द्वय –रामविलास पासवान-उपेन्द्र कुशवाहा -जीतन राम मांझी-पपू यादव ( एन डी ए –गठबंधन ) की प्रत्यक्ष लड़ाई की पृष्ठभूमि में 2015 के इस चुनाव में दोनो ओर से कोई लड़ रहा है , कोई कसौटी पर है तो वह है ‘ सामाजिक-न्याय’, जाति-न्याय.
इस चुनाव में एक ओर लालू प्रसाद यादव जाति-जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने को मुद्दा बना रहे हैं, नीतीश कुमार उनसे चिर प्रतिद्वंद्विता के बावजूद 90 के दशक की उनकी धर्मनिरपेक्ष सामाजिक न्याय के पहरुए की उनकी छवि और उनके यादव वोट वैंक को देखते हुए उनसे महा –गठबंधन का प्रयोग कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओरभारतीय जनता पार्टी अपने प्रधानमंत्री को ओ बी सी बताते हुए अपने को पिछड़ों के ज्यादा करीब घोषित कर रही है. सामाजिक न्याय के प्रतीक कई दलित –पिछड़े चेहरे उसके साथ हैं. चेहरों के माध्यम से जाति-प्रतिनिधित्व का संकेत देने से भी आगे बढ़ कर पार्टी पिछड़ों –दलितों के सांस्कृतिक प्रतीकों को भी सहला रही है . अशोक की जाति बताकर समारोह आयोजित करते हुए कोयरी जाति को राजनीतिक संरक्षण का सन्देश दे रही है तो अपने उच्च जाति के पारम्परिक मतदाताओं की नाराजगी की परवाह किये बिना पासवानों के सांस्कृतिक प्रतीक ‘ बाबा चुहड़मल’ की जयंती मना रही है.
सामाजिक न्याय के लिए दोनो खेमों की दावेदारी के बीच ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि पिछले 25 सालों में जाति-अस्मिता की राजनीति अपना एक चरण पूरा कर चुकी है. इतिहास के इस काल –खंड के पहले चरण (लालू –राबड़ी राज ) को भाजपा ‘जंगलराज’ के नाम और उसकी वापसी को ही चुनावी मुद्दा बना रही है, जबकि दूसरे खंड ( पहले 8 साल में नीतीश –भाजपा और बाद में नीतीश –मांझी –नीतीश) को लेकर भ्रम की स्थिति में है क्योंकि इन 8 सालों की छवि ‘ विकास –काल’ के रूप में बनाने में उसकी भी अहम भूमिका रही है. इन 25 सालों में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जिन पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं , वे काफी हद तक अपने सामाजिक नुकसान की भारपाई कर चुकी हैं. अब ओ बी सी जातियों के अति पिछड़े समुदायों ने अपनी –अपनी दावेदारी पेश की है . दलितों के बीच भी जाति-अस्मिताएं अपना –अपना भाग मांग रही हैं . खुद नीतीश कुमार ने दलित –महादलित बंटवारे के साथ पीछे छूट गई जातियों को संरक्षण देने की कोशिश की है. अति पिछड़ों को भी स्थानीय निकायों में आरक्षण , नौकरियों में आरक्षण के माध्यम से उनकी आकांक्षाओं को खडा किया है .
इन्हीं 25 सालों की हकीकत यह भी है कि मुसलामानों के बीच भी पिछड़े-दलित मुसलमान ( पश्मान्दा ) अपनी अस्मिता के साथ एक अलग इकाई बन चुके हैं. बिहार के पश्मान्दा मुसलमान अली अनवर की रहनुमाई में जद यू के साथ हैं. महिलाओं को भी नीतीश कुमार ने अपने सामाजिक न्याय का एक हिस्सा बनाया है. इस सामाजिक –राजनीतिक सच्चाई के साथ इस चुनाव की राजनीतिक हकीकत यह भी है कि दलित –महादलित नेता ( राम विलास पासवान और जीतन राम मांझी) तथा पीछे छूट गई ओ बी सी जातियों के नेता ( जिनमें कुशवाहा जाति की संख्या निर्णायक है) उपेन्द्र कुशवाहा बी जे पी- एन डी ए के खेमे में हैं. इन्हीं 25 सालों में पिछड़ों का नेतृत्व भी विस्तृत हुआ है – लालू यादव का यादवों की रहनुमाई का इकलौता दावा खत्म हुआ है , अब पप्पू यादव, रामकृपाल यादव जैसे यादव नेता एन डी ए में शामिल होकर लालू यादव को चुनौती दे रहे हैं. राज्य में भाजपा के एक कद्दावर यादव नेता नन्दकिशोर यादव पहले से ही पार्टी का यादव चेहरा हैं. सुशील मोदी के रूप में राज्य का भाजपा नेतृत्व पिछड़ों के साथ होने का अहसास काफी अरसे से दे रहा है . जबकि यह भी सच है कि ऊंची जातियों के बीच अपनी विश्वसनीयता इसने कभी खोई नहीं है.
2015 का चुनाव न सिर्फ नीतीश –लालू के लिए जीने –मरने का सवाल है बल्कि सामाजिक न्याय और जाति-अस्मिता की लड़ाई का भी निर्णायक संग्राम है. भाजपा –एन डी ए पिछड़े –दलितों के विश्वसनीय नेताओं की टीम के साथ सामाजिक न्याय की रहनुमाई का अपना दावा पेश कर रही है. इस दावे के साथ एक हकीकत यह भी है कि अवसर की तलाश में आये दलित –पिछड़े नेताओं को एकजूट रखने के लिए तथा अपनी पार्टी के पिछड़े –दलित –मुसलमान नेताओं तथा महत्वाकांक्षी ऊंची जाति के नेताओं को आश्वस्त बनाए रखने के लिए भाजपा चुनाव में मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं कर रही है . दिल्ली के परिणाम से सबक लेकर शायद पार्टी ने किसी स्थानीय नेता के नेतृत्व में चुनाव लड़ने से बेहतर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर दांव खेलने के विकल्प को मानती है . भाजपा के इस असमंजस के साथ दूसरे राज्यों की उसकी चुनावी रणनीति के उदहारण जनता के सामने है . झारखंड में आदिवासी नेतृत्वों को किनारे कर ‘ रघुवर दास’ को मुख्यमंत्री बना दिया गया . महाराष्ट्र में अरसे बाद फडणवीस के रूप में किसी ब्राह्मण नेता की ताजपोशी हुई है. जाट-गुजर नेताओं के ऊपर वरीयता देते हुए मनोहर खट्टर को हरियाणा का मुख्यमंत्री बना दिया गया . बिहार में यह पैटर्न दुहराये जाने का अनुमान लगाते लोग भी कतई गलत नहीं होंगे . मुख्यमंत्री के उम्मीदवार की घोषणा के बिना चुनावी समर में उतरे एन डी ए का, चुनाव जीतने के बाद , कोई ऊंची जाति का नेता भी नेतृत्व कर सकता है. ऐसा होता है तो 25 सालों बाद सत्ता में ऊंची जाति की पुनर्वापसी होगी. इन समीकरणों के साथ तय है कि बिहार के चुनाव में दोनो प्रमुख गठबन्धनों की ओर से सामाजिक –न्याय और जाति-अस्मिता ही कसौटी पर कसी जा रही है. इस बीच वाम-मोर्चा भी तीसरी धूरी बनने की पूरी कवायद में है , जिसकी घोषित राजनीति जाति-अस्मिता की राजनीति के खिलाफ रही है , यानी उसके प्रदर्शन की कसौटी पर भी पिछले 25 सालों का सामाजिक –न्याय का नेतृत्व ही कसा जाने वाला है.
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