'सोशल इंजीनियरिंग' ही है बिहार में सत्ता की चाब
रजत मुखर्जी, नई दिल्ली.जैसी की उम्मीद की जा रही थी अमित शाह के ‘पहले ओबीसी प्रधानमंत्री’ वाले बयान पर सबसे ज्यादा हायतौबा बिहार में ही मची. तथ्यों की कसौटी पर अमित शाह का नरेंद्र मोदी को पहला ‘ओबीसी प्रधानमंत्री’ बताना भले ही खरा नहीं उतरता हो पर इस बयान के पीछे सोची-समझी रणनीति से इनकार नहीं किया जा सकता. राजनीति में कई बार ‘तथ्य’ और ‘सत्य’ अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार गढ़े जाते हैं और फिर देवेगौड़ा जिस दौर में प्रधानमंत्री बने थे वह दौर काफी पीछे छूट चुका है. 24 घंटे खबरों से भरी रहने वाली आज की दुनिया में इस तरह के सियासी मतलब वाले बयानों का अपना अलग स्पेस और इफेक्ट होता है. बिहार में एनडीए हो या जनता परिवार-कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन, चुनाव में एक अच्छी बढ़त पाने के लिए दोनों को पिछड़े और अति-पिछड़े मतदाताओं के एक प्रभावी हिस्से को अपनी तरफ खींचना ही होगा. ‘विकासवादी राजनीति’ के तमाम दावों और प्रतिदावों के बीच सोशल-इंजीनियरिंग और री-इंजीनियरिंग की संभावना और अहमियत पहले भी थी और आज भी है. इसी कड़ी में बीजेपी की रणनीति सबसे बड़े मतदाता समूह यानी यादव मतदाताओं को अपने पाले में लाने की दिख रही है. बीजेपी की इस कोशिश में रामकृपाल यादव, नंदकिशोर यादव, हुकुमदेव नारायण यादव, नित्यानंद राय जैसे नेता पूरी शिद्दत के साथ जुटे दिखाई देते हैं.बिहार विधान परिषद चुनावों के नतीजे इस मायने में बीजेपी के लिए उत्साहवर्धक हैं. खासतौर से पटना और छपरा की सीटों पर जदयू के प्रत्याशियों की हार का मतलब यह निकाला जा सकता है कि वहां के यादव मतदाताओं ने जदयू के प्रत्याशी के बजाए निर्दलीय प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान किया. छपरा में जदयू ने विधान परिषद के उपसभापति सलीम परवेज़ को अपना प्रत्याशी बनाया था पर उन्हें भारी शिकस्त मिली. पटना में भी जेडीयू उम्मीदवार को रीतलाल यादव से पराजित होना पड़ा. बिहार में यह चर्चा आम है कि जेडीयू उम्मीदवारों को आरजेडी कार्यकर्ताओं का अपेक्षित सहयोग नहीं मिला. कांग्रेस का साथ पाने से जदयू की मुस्लिम वोटों पर पकड़ भले ही मज़बूत हुई हो पर आरजेडी का गैर-मुस्लिम वोटर अब भी जेडीयू के प्रति उदारता नहीं दिखा रहा है.खासतौर से यादव मतदाताओं में इस गठबंधन को लेकर वैसा उत्साह देखने को नहीं नहीं मिल रहा है तभी तो वह लालू का साथ तक छोड़ने जैसे कदम उठा रहा हैं. तो क्या आरजेडी-जेडीयू गठबंधन धरातल पर फलीभूत नहीं हुआ ? गौरतलब है कि 1990 के बाद बिहार में तथाकथित अगड़ी जाति का कोई मुख्यमंत्री नहीं बना. मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद से अबतक अगड़ों और पिछड़ों के सामाजिक संबंधों में एक किस्म का सेचुरेशन या ठहराव आ चुका है…समाज के इन वर्गों में अब वैसा संघर्ष नहीं दिखता जो 70, 80 या फिर 90 के दशकों में नजर आता था. ऐसे में अगड़ों की खिलाफत में पिछड़ी जातियों की वैसी गोलबंदी के आसार नहीं दिख रहे जिसके बूते एक वक्त लालू बुलंदी पर पहुंचे थे. इस परिप्रेक्ष्य में बिहार में एक नई सोशल इंजीनियरिंग की बुनियाद रखने की काफी संभावना दिखाई देती है. from http://aajtak.intoday.in/
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