…तो विधानसभा चुनाव बिहार के लिए यह है अमित शाह की बिसात

amit-shah-with sushil modiराहुल कंवल.
बात जनवरी की है. बीजेपी अध्यक्ष बनने के बाद अपनी पहली बिहार यात्रा के दौरान अमित शाह के मन में एक सवाल था. पटना में बीजेपी नेता सी.पी. ठाकुर के घर पर वरिष्ठ पार्टी नेताओं के साथ एक दोपहर भोज में मेज पर मौजूद चुनिंदा नेताओं से उन्होंने पूछा, ”नीतीश कुमार ने रात्रिभोज भला क्यों रद्द कर दिया था?” वे जून, 2010 का जिक्र कर रहे थे जब बिहार में पार्टी के साथ गठबंधन के अहम भागीदार और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी के लिए पटना पहुंचे बीजेपी के शीर्ष नेताओं को दिया गया डिनर का न्यौता वापस ले लिया था. नीतीश ने वह न्यौता बीजेपी के एक विज्ञापन छपवाने के जबाव में रद्द किया था, जिसमें उन्हें गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ एकजुट होते हुए दिखाया गया था जबकि नीतीश उनसे, खास तौर पर उनकी 2002 की छवि की वजह से दूरी पर दिखाई देना चाहते थे, ताकि अपनी ‘धर्मनिरपेक्ष’ छवि को बरकरार रख सकें.
उस रात्रिभोज के बाद से बहुत कुछ घट चुका है. मोदी अब प्रधानमंत्री हैं और बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व के शिखर पर हैं, जहां उनके कद पर कोई सवाल नहीं खड़ा कर सकता. जबकि उधर नीतीश भले मुख्यमंत्री हैं, लेकिन सियासी तौर पर वे इतने कमजोर पहले कभी नहीं थे जितने अभी हैं. बीजेपी उस बेइज्जती को अभी तक भूली नहीं है और अमित शाह कुछ महीनों बाद होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में उसका बदला चुकाने के लिए बेताब हैं.
यह कहना तो आसान है, पर उसे कर पाना मुश्किल. जनवरी के दोपहर भोज के बाद भगवा खेमे में भी काफी कुछ घट चुका है. खासकर पिछले सात हफ्तों में जब उसे एक के बाद एक शर्मिंदगियां झेलनी पड़ीं—ललित मोदी विवाद में सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे की भूमिका से लेकर व्यापम घोटाले की आंच में झुलसे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तक. इन छह महीनों में शाह की अपनी हैसियत भी थोड़ी डांवाडोल हुई है, वे दिल्ली विधानसभा चुनाव हार चुके हैं और उनकी कार्यशैली को लेकर पार्टी के भीतर दबी जुबान में सवाल उठने लगे हैं. खुद शाह से बेहतर कोई नहीं जानता कि जनवरी 2016 में होने वाले बीजेपी अध्यक्ष के चुनाव से पहले पार्टी के भीतर और बाहर दोनों जगह—उनके खिलाफ तलवारें खिंच गई हैं.
शाह यह भी जानते हैं कि इस सबका मुंहतोड़ जबाव देने के लिए उन्हें बिहार के चुनाव को शानदार ढंग से जीतकर दिखाना होगा. 11, अकबर रोड के अपने घर के ड्राइंग रूम में एसी की जबरदस्त ठंडक में बैठे शाह ने इंडिया टुडे को बताया कि बिहार की चुनाव रणनीति बहुत छोटी-छोटी और बारीक बातों पर इतना ज्यादा ध्यान देते हुए बनाई गई है कि इससे पहले हिंदुस्तान के किसी भी चुनाव में नहीं बनाई गई होगी. पार्टी कार्यकर्ता मतदाता सूचियों में दर्ज एक-एक मतदाता को खोजकर उनसे संपर्क कर रहे हैं. शाह के लिए बिहार का चुनाव कितना अहम है, इसका उनकी तैयारियों से भी अंदाजा लगाया जा सकता है. वे कहते हैं, मेरे पास राज्य की सभी 243 सीटों के हर वार्ड को लेकर योजना है. पिछले छह महीनों से मेरे पन्ना प्रमुख सभी गांवों में घर-घर जाकर समर्थन जुटा रहे हैं. हर गांव में हमें पता है कि कौन-सा घर हमारा समर्थन करने वाला है, किसने अभी तय नहीं किया है और कौन हमारे खिलाफ है.
फिर वे एक एक्सेल शीट का पन्ना खोल देते हैं, जिसमें हर विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं के जातिवार ब्योरे दर्ज हैं. गांव के आगे उन स्थानीय और केंद्रीय नेताओं की फेहरिस्त भी दर्ज है, जिन्हें वहां जनसंपर्क के लिए भेजा जा रहा है. नेताओं को उनकी जाति और उस सीट विशेष पर सबसे असरदार जाति के लोगों में उनकी अपील के आधार पर चुना जा रहा है. शाह का दावा है कि उनके पास अगले दो महीनों के लिए हर सीट पर हर दिन की योजना तैयार है. दिन भर की गतिविधियां और मतदाताओं से मिली प्रतिक्रिया हर शाम उनके दफ्तर पहुंच जाती है.
पटना में स्थानीय नेता बताते हैं कि पार्टी ने हर विधानसभा क्षेत्र में औसतन करीब 27,000 सदस्यों की ताकत हासिल कर ली है. उनके मुताबिक, रणनीति अब बिल्कुल सीधी-सादी है: इन सदस्यों और उनके परिवारवालों का वोट डलवाना. बीजेपी अपने परंपरागत जनाधार पर पकड़ के साथ नए मतदाताओं पर जोर दे रही है. परंपरागत तौर पर बीजेपी को व्यापारियों, शहरी मध्य वर्ग और सवर्णों की पार्टी माना जाता है. लेकिन इस बार वह उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी सरीखे अन्य पिछड़ा वर्ग के सहयोगियों और साथ ही जीतनराम मांझी और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) सरीखे दलित सहयोगियों के साथ होने पर भी इठला रही है. बिहार की सियासत के जातीय समीकरणों के आगे सिर झुकाते हुए वह ‘विकास पुरुष’ नरेंद्र मोदी को पिछड़ी जाति के नेता के तौर पर पेश कर रही है.
वक्त के साथ कदमताल करते हुए पार्टी ने राज्य में 60 लाख मोबाइल फोन धारकों को सक्रिय बीजेपी समर्थकों में शुमार किया है. राज्य के बीजेपी नेता कहते हैं, ए वे लोग हैं जो कहे जाने पर बीजेपी कॉल सेंटर को एसएमएस भेजते हैं—जिन्होंने हमें एसएमएस भेजा है, वे पक्के तौर पर वोट देंगे.”
जैसे-जैसे फैसले की घड़ी नजदीक आ रही है, शाह की टीम ने बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों को तीन श्रेणियों में बांटा है और सबके लिए चुनाव अभियान की खास रणनीति भी बनाई है. पहली श्रेणी में वे सीटें हैं, जहां परंपरागत रूप से बीजेपी का प्रभाव रहा है. इसके लिए पार्टी की रणनीति कम समय देकर यह सुनिश्चित करना है कि कार्यकतार्ओं का मनोबल ऊंचा बना रहे और स्थानीय नेता लगातार अपने मतदाताओं के संपर्क में बने रहें.
दूसरी और सबसे अहम श्रेणी में वे सीटें हैं जिन पर बीजेपी कांटे की टक्कर की उम्मीद कर रही है. इन विधानसभा क्षेत्रों में एनडीए और जनता गठजोड़, दोनों बराबर से मजबूत हैं और पलड़ा किसी भी तरफ झुक सकता है. शाह ने इन सीटों के लिए वरिष्ठ बीजेपी नेताओं की भारी-भरकम फौज मैदान में उतार दी है. इन सीटों के लिए उम्मीदवारों के चयन पर भी खास जोर दिया जा रहा है. मिसाल के लिए, एक सीट पर अगर राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) किसी मजबूत यादव उम्मीदवार को खड़ा करता है, तो एनडीए ऐसी सीटों पर ज्यादातर गैर-यादव उम्मादीवारों को उतारने की योजना बना रहा है. इससे उलट, जिन सीटों पर जनता दल(यू) गैर-यादव या कुर्मी उम्मीदवार खड़ा करेगा, वहां बीजेपी यादव उम्मीदवारों को उतारने की रणनीति बना रही है. इसके पीछे विचार यह है कि बिहार सरीखे जाति के कड़ाहे में जनता गठजोड़ के उम्मीदवार की जाति के खिलाफ जो जातियां हों, बीजपी उन जातियों के मतदाताओं को एकजुट कर सकने वाली जाति के उम्मीदवार को मैदान में उतारे.
तीसरी श्रेणी में वे सीटें हैं, जहां बीजेपी की जीत की ज्यादा संभावना नहीं है. इन सीटों के लिए पार्टी अपने विरोधियों के वोटों को काटने की रणनीति पर काम कर रही है. इसके लिए बागी उम्मीदवारों और पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी सरीखे दुश्मन के दुश्मनों का सहारा लिया जाएगा.
शाह का मानना है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के विपरीत बिहार की लड़ाई के मैदान में मजहब कोई खास भूमिका अदा नहीं करने वाला है. उनके राजनैतिक गुणा-भाग के हिसाब से मजहब चुनावी बिसात पर तभी अहमियत रखता है, जब बहुसंख्यक समुदाय में यह भावना घर कर गई हो कि अल्पसंख्यक समुदायों के ऊपर जमकर मेहरबानी की जा रही है. पिछले आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार के कामों से ठीक यही धारणा बनी थी. नतीजतन बहुसंख्यक समुदाय के बहुत सारे लोगों ने राज्य में अल्पसंख्यक समुदाय को सबक सिखाने के लिए आपस में हाथ मिला लिए. पश्चिमी उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ ध्रुवीकरण गंगा के किनारे-किनारे पूरब तक फैल गया और सीटों की शानदार फसल बीजेपी की झोली में डाल दी.
इस बार बिहार के बहुसंख्यक समुदाय में इस किस्म की कोई नाराजगी नहीं है. इसलिए बतौर चुनावी रणनीति ध्रुवीकरण को तिलांजलि दे दी गई है. लड़ाई वही गठबंधन जीतेगा या हारेगा, जो ज्यादा ताकतवर जातीय समीकरण का गठजोड़ कायम कर सकेगा.
मोटे तौर पर कहें तो बीजेपी को ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, ठाकुर और अन्य सवर्ण जातियों के वोट मिलने का पक्का भरोसा है. पार्टी कायस्थों और बनियों सरीखी कई व्यापारिक जातियों का मजबूत समर्थन मिलने की उम्मीद भी कर रही है. ए सब मिलाकर बिहार की मतदाता आबादी के तकरीबन 31 फीसदी होते हैं. शाह आरजेडी के यादव वोट बैंक के एक हिस्से को तोडऩे की भी उम्मीद लगाए हैं. सेंटर फॉर द स्टडी आॅफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के आंकड़े बताते हैं कि लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार के करीब 19 फीसदी यादवों ने बीजेपी को वोट दिया था.
मगर, कागजों पर, हो सकता है, इतना काफी न हो. जनता गठबंधन को गिनती में अच्छे खासे, मतदाताओं के करीब 17 फीसदी, मुसलमानों का और यादव मतदाताओं (राज्य के कुल वोटरों के करीब 14 फीसदी) के एक बड़े हिस्से के  वोट मिलने की लगभग गारंटी है. नीतीश कुर्मी और कोइरी समुदायों के बहुतायत वोट भी अपने पाले में आने की उम्मीद कर रहे हैं, जो मिलाकर करीब 10 फीसदी होते हैं.
11, अकबर रोड पर बीजेपी के सेनापति अमित शाह बिहार के लिए पार्टी की रणनीति बनाते हुए अक्सर 1764 ईस्वी में हुई बक्सर की जबरदस्त लड़ाई का जिक्र करते हैं. बीजेपी अध्यक्ष मानते हैं कि 2015 में बिहार में होने वाली लड़ाई अगले 15 साल की भारतीय राजनीति का भविष्य तय करेगी. शाह का गणित सीधा-सादा है. अगर लडखड़ाता हुआ धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बीजेपी की फौज को धूल चटाने में कामयाब हो जाता है, तो मोदी के इर्दगिर्द कायम अपराजेयता का आभामंडल चकनाचूर हो जाएगा और एक ऐसी तरकीब विरोधियों के हाथ लग जाएगी, जिसे दोहराने की उम्मीद वे अगले तीन साल के दौरान होने वाले सभी चुनावों में कर सकते हैं. लेकिन अगर मोदी की फौज एक तिहरे हमले का मुकाबला करने में कामयाब हो जाती है, तो इससे ज्यादातर राज्यों में विरोधी पार्टियों का आत्मविश्वास पूरी तरह खत्म हो जाएगा और यह साबित हो जाएगा कि विपक्षी एकता के बल पर भी मोदी लहर को ध्वस्त नहीं किया जा सकता.
बक्सर की लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी के मेजर हेक्टर मुनरो की तरह अमित शाह को भी एहसास है कि उनका मुकाबला संख्याबल में अपने से कहीं ज्यादा ताकतवर फौज से है. लेकिन उस कंपनी के रणबांकुरों की तरह वे यह भी जानते हैं कि कागजी गुणा-भाग से न तो लड़ाइयां जीती जाती हैं और न ही चुनाव. (साथ में अमिताभ श्रीवास्तव) –सौजन्य: इंडिया टुडे






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