हाथी की मदमस्त चाल से दलित नेताओं में बेचैनी
पटना। बिहार की चुनावी राजनीति की सबसे बड़ी विशेषता प्राय: यह रही है कि यहां गैर बिहारियों को व्यक्तिगत रूप से चुनावी सफलता तो मिली है लेकिन दल के स्तर पर उन्हें सफलता नहीं मिलती है। मसलन उत्तर प्रदेश में राज करने वाली समाजवादी पार्टी अपने पड़ोसी राज बिहार में पहचान को मोहताज है। यह स्थिति तब है जबकि राष्ट्रीय स्तर जदयू-राजद के साथ उसका गठबंधन संभावित है। लेकिन इससे इतर मायावती की बहुजन समाज पार्टी है जिसने राज्य में अपना अहम स्थान मुकम्मिल कर लिया है। हालत तो यह हो गई है कि बसपा के हाथी की चाल के कारण सूबे के दलित नेताओं की बेचैनी बढ़Þ गई है। बेचैनी बढ़Þने की एक बड़ी वजह यह है कि वर्ष 1990 से सूबे की राजनीति में प्रवेश करने के बाद बसपा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा है। हर चुनाव में उसके वोटों का प्रतिशत बढ़Þा है। चूंकि इस बार भाजपा जीतन राम मांझी और रामविलास पासवान के सहारे दलित वोटरों को लुभाने में जुटी है, लिहाजा यह सवाल तो उठता ही है कि बसपा के बढ़Þते कदम का भाजपाई रणनीति पर क्या असर पड़ेगा।
अतीत के आंकड़ों के लिहाज से बात करें तो वर्ष 1990 में बसपा ने पहली बार विधानसभा चुनाव में भाग लिया था। इस चुनाव में उसने 164 विधानसभा क्षेत्रों में अपना उम्मीदवार उतारा था। इसमें उसे कोई सफलता तो नहीं मिली लेकिन पहली बार में ही दलितों का 2 लाख 33 हजार 762 मत हासिल करने में उसे सफलता मिली थी। उल्लेखनीय है कि यह वह दौर था जब पूरे देश की राजनीति करवट ले रही थी। मंडल कमीशन के बाद शुरू हुए सामाजिक न्याय की राजनीति ने बिहार की राजनीतिक आबोहवा को बदल दिया था। उस दौर में बसपा को मिली यह सफलता खासा उल्लेखनीय थी जिसका वास्तविक लाभ उसे वर्ष 1995 के विधानसभा चुनाव में मिला। इस चुनाव में बसपा ने कुल 161 विधानसभा क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार खड़ा किए और दो उम्मीदवारों ने फतह हासिल किया। इस प्रकार महज पांच वर्षों के अंदर बसपा ने अपने वोटों को दुगना कर लिया। इनमें मोहनिया सुरक्षित क्षेत्र से सुरेश पासी और चैनपुर से महाबली सिंह शामिल थे। इस चुनाव में उसे 1.34 प्रतिशत मत मिले थे।
वहीं वर्ष 2000 में बसपा राष्ट्रीय पार्टी के रूप में अपना स्थान बना चुकी थी। उसने 249 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारा और पांच सीटों पर जीत हासिल किया। इस चुनाव में बसपा को 1.89 फीसदी वोट मिले थे। जबकि वर्ष 2005 के अक्टूबर-नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा को एक सीट का नुकसान हुआ और उसके केवल चार विधायक ही विधानसभा पहुंच सके लेकिन उसके वोटों में जबर्दस्त उछाल आया। खास बात यह है कि इस चुनाव में रामविलास पासवान की लोजपा भी मैदान में थी। इसके बावजूद बसपा को 4.17 फीसदी वोट मिले थे। जबकि राजद के साथ रहने के बावजदू लोजपा को कुल 11 फीसदी वोट मिले थे। वहीं वर्ष 2010 में नीतीश के लहर का शिकार बसपा भी हुई और उसे कोई सफलता नहीं मिली लेकिन विषम परिस्थिति के बावजूद उसे 3.21 फीसदी वोट हासिल हुए थे।
बहरहाल, बिहार में बसपा अब दलितों की पार्टी के रूप में स्थापित हो चुकी है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि बसपा ने रामविलास पासवान के जैसे किसी और पार्टी के साथ कोई गठबंधन नहीं किया है और उसने हमेशा अकेले ही चुनाव लड़ा है। इस बार भी वह मैदान में अकेले ही है। आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि बसपा अपने पूर्व के प्रदर्शन को दोहराने में कितना कामयाब रहती है। वजह यह है कि बसपा की कामयाबी का असर दलित वोटरों के सहारे सत्ता का ख्वाब देख रही भाजपा की सफलता पर पड़ेगा। (अपनाबिहार डॉट आॅरजी से)
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