एक तिहाई सीटों पर टाइट फाइट

electionअरविंद शर्मा, पटना। चुनाव में जीत के लिए मुकम्मल तैयारी, संघर्ष और सियासी लहर बहुत बड़े फैक्टर माने जाते हैं, किंतु हार के लिए कभी कभी किस्मत को भी जिम्मेवार ठहरा दिया जाता है। सियासी बयार में किसी सीट पर कोई प्रत्याशी मामूली वोटों से जीत जाता है तो कोई महज कुछ वोट से पीछे छूट जाता है। नतीजा आने के बाद अक्सर पछतावा होता है कि थोड़ा जोर और लगा लिए होते तो शायद यह हाल नहीं होता। 2010 के विधानसभा चुनाव के नतीजों को आज के हालात में देखें तो कई तस्वीरें उभरती हैं।
बिहार विधानसभा की 243 में से 92 सीटों पर जीत-हार का अंतर 10 हजार से भी कम वोटों का रहा था। मतलब साफ है कि यहां मुकाबला कड़ा था। 12 प्रत्याशी तो एक हजार से भी कम के अंतर से हार गए थे। तीन हजार से कम वोटों से हारने वालों की संख्या भी 20 थी।
राजनीति में हमेशा दो और दो चार नहीं होता है। मुकम्मल तैयारी हुई तो इस बार इस अंतर को पाटा भी जा सकता है। ऐसे में सभी के लिए ए सीटें मायने रखेंगी, क्योंकि गठबंधन की राजनीति ने चुनावी समीकरणों को गड्डमड्ड कर दिया है। फिर भी वक्त के साथ अभी कई दौर आने हैं। हवा बन भी सकती है और बदल भी सकती है। नतीजे ही बता सकते हैं किसने कितनी लहर पैदा की और किसके पक्ष में आवाम का झुकाव हुआ। फिर भी पूर्व के परिणामों के नमूने कड़े संघर्ष की ओर संकेत तो कर ही रहे हैं।
पिछले विधानसभा चुनाव में सबसे बड़े दुर्भाग्यशाली केवटी के राजद प्रत्याशी फराज फातमी को माना जा सकता है, जो महज 29 वोटों से भाजपा के अशोक यादव से पीछे रह गए थे। चकाई से झारखंड मुक्ति मोर्चा का बिहार में खाता खोलने वाले सुमित कुमार सिंह भी महज 188 वोटों के अंतर से सिकंदर बने थे। हारने वाले लोजपा प्रत्याशी विजय कुमार थे।
किशनगंज के कड़े मुकाबले में भाजपा प्रत्याशी स्वीटी सिंह महज 264 वोटों से कांर्ग्रेस के मो. जावेद से हार गई थीं। इसी तरह बिहपुर में राजद के बुलो मंडल 465 वोटों से भाजपा के शैलेंद्र कुमार से पीछे रह गए थे। हालांकि, वह बाद में सांसद बन गए। भभुआ में भाजपा के आनंद भूषण पांडे महज 447 वोटों से लोजपा के प्रमोद कुमार सिंह से हार गए थे।
प्राणपुर में एनसीपी की इशरत परवीन 516 वोटों से भाजपा के विनोद सिंह से पीछे रह गईं थीं। मधुबनी में राजद के नैयर आजम को मात्र 588 वोट और मिल जाते उनकी नैया पार हो जाती। भाजपा के रामदेव महतो आज विधायक नहीं होते। बहादुरपुर में राजद के हरिनंदन यादव 643 वोटों से विधायक बनने से चूक गए। जदयू के मदन सहनी ने उन्हें परास्त कर दिया। गोह से जदयू के रणविजय सिंह ने महज 694 वोटों से राजद के राम अयोध्या प्रसाद को पछाड़ा था।
ढाका में जदयू के फैसल रहमान के पक्ष में सिर्फ 712 वोटरों का फैसला और आ जाता तो निर्दलीय पवन कुमार जायसवाल की किस्मत नहीं चमकती। परबत्ता में जदयू के रामानंद प्रसाद सिंह मात्र 808 वोटों से राजद के सम्राट चौधरी से पीछे रह गए थे। ओबरा में निर्दलीय सोमप्रकाश ने रॉबिन हुड स्टाइल में अपनी किस्मत लिखी थी। दरोगा की नौकरी से इस्तीफा देकर सियासी समर में उतरे और 802 वोटों से जदयू के प्रमोद चंद्रवंशी को विधायक नहीं बनने दिया।
तब कुछ बड़े नेताओं की किस्मत भी जीत के करीब आकर दगा दे गई थी। कांर्ग्रेस के अशोक चौधरी बरबीघा में जदयू के गजानंद शाही से महज 3047 वोट से हार गए थे। हालांकि बाद में चौधरी विधान पार्षद बन गए। पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी मखदुमपुर सीट से 5085 वोट से जीत सके थे। उन्होंने राजद के धर्मराज पासवान को हराया था। विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी भी इमामगंज में कड़े संघर्ष में पड़ गए थे। राजद के रौशन कुमार को उन्होंने सिर्फ 1211 वोटों से परास्त किया था।






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