बिहार के आसमान पर चुनावी बादल
अमित शाह की इस सौ टके खरी नसीहत से भी यदि बात आपकी समझ में न आई हो तो प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार की पहली वर्षगांठ पर खुद भी एक नया पाठ पढ़ाया : सूट-बूट की सरकार सूटकेस की सरकार से अच्छी होती है! इसे कहते हैं कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना! लेकिन मोदी की दिक्कत यही है कि वे जब जुमलेबाजी के तीर चलाते हैं तब यह भूल जाते हैं कि निशाना लगाने वाला भी बाजवक्त निशाने पर आ जाता है।
कुमार प्रशांत
हर चुनाव राजनीति की किताब में एक नया पन्ना जोड़ता है! फिर यह बात अलग है कि चुनाव के बाद वह पन्ना दुनिया को दिखाने लायक है कि छिपाने लायक ! मोदी पार्टी के करिश्माई अध्यक्ष अमित शाह ने लोकसभा के पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी की शानदार जीत के बाद यह नायाब बात कही कि चुनाव में सत्य नहीं होता है, जुमलेबाजी होती है। जुमलेबाजी को सच मान कर अगर आप रोज अपने बैंक खाते की जांच करने लगेंगे कि उसमें पंद्रह लाख आए कि नहीं, तो आप पछताएंगे भी और पगलाएंगे भी। चुनाव में बस एक ही खाते में पैसा आता है और वहां से कभी, किसी दूसरे खाते में नहीं जाता।
अमित शाह की इस सौ टके खरी नसीहत से भी यदि बात आपकी समझ में न आई हो तो प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार की पहली वर्षगांठ पर खुद भी एक नया पाठ पढ़ाया : सूट-बूट की सरकार सूटकेस की सरकार से अच्छी होती है! इसे कहते हैं कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना! लेकिन मोदी की दिक्कत यही है कि वे जब जुमलेबाजी के तीर चलाते हैं तब यह भूल जाते हैं कि निशाना लगाने वाला भी बाजवक्त निशाने पर आ जाता है। सूटकेस वाला उनका तीर कहीं पहुंचता, इससे पहले ही किसी ने कहा कि देश की हर सरकार सूटकेस के सहारे ही चलती रही है, आगे भी चलेगी। लेकिन मोदीजी की सरकार देश की वह पहली सरकार है जो बनी ही सूटकेस के सहारे है! जैसे अलादीन का चिराग रगड़ने से जिन्न पैदा होता था, वैसे ही सारे धनपतियों का सूटकेस रगड़ने से यह सरकार पैदा हुई है। फिर मोदी ने वह खास करिश्मा किया जो वे ही कर सकते हैं। उन्होंने उस सूटकेस में से निकले जिन्न से अपने लिए अनगिनत सूट-बूट मंगवा लिए! और जब सरदार ने सूटकेस का ऐसा इस्तेमाल किया, तो फौज कैसे पीछे रहती? सो, आज की तारीख में मोदी सरकार देश में बनी सबसे संपन्न, सूट-बूटधारियों की फौज द्वारा संचालित सरकार है। इसलिए तो हम कहते हैं कि यह सरकार, सूटकेस में से निकले सूट-बूट की सरकार है! चलिए, अब हम क्या कहें इन जुमलेबाजों को! हम तो अमित शाहजी की ही कही मानते हैं कि भाई, भले नरेंद्र मोदीजी ही करें फिर भी जुमलेबाजी को सच नहीं मानना चाहिए।
लेकिन बिहार के चुनाव का अपना जिन्न भी कम तो नहीं है। उसने सबके होश फाख्ता कर रखें हैं। लोकसभा चुनाव में मोदी ने जितने तीर चलाए थे, वे सब-के-सब 12 महीनों में ही इस कदर तुक्का साबित हुए हैं कि इस सूट-बूट की सरकार का आत्मविश्वास हिल गया है। अब नए तीर खोजे व गढ़े जा रहे हैं; और एक ऐसा तीर हाथ लगा है कि जिस पर एकाधिकार की लड़ाई में राहुल और नरेंद्र ( आप इसे बराक वाले अंदाज में लेने की कृपा करें ! ) एकदम आमने-सामने आ गए हैं। इस तीर का नाम है बाबा साहब आंबेडकर! बाबासाहब का राजनीतिक इस्तेमाल करने की कोशिश काफी पहले से चलती रही है और कई हैं कि जिनकी राजनीतिक रसोई इसी ईंधन से पकती आ रही है। लेकिन तिकड़म से प्रधानमंत्री बन गए विश्वनाथ प्रताप सिंह को जब लालकृष्ण आडवाणी ने तिकड़म से चुनौती दी तब उन्होंने बाबा साहब का तीर पहली बार खुल कर इस्तेमाल किया। वे भले अपनी सरकार नहीं बचा सके लेकिन बाबा साहब के आभामंडल में आ कर वे ऐसे चमकने लगे कि कितनी ही आंखें चुंधिया गईं। उन्होंने बाबा साहब को भारत-रत्न भी बनाया, डाक टिकट भी निकलवाया, उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय छुट्टी भी घोषित किया। इसी तीर का प्रताप है कि राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनीति में कितने ही नए नेतागण पैदा हो गए। यह बात दीगर है कि वे सभी तुरंत ही, बड़ी आसानी से पुराने कोल्हू के बैल बन गए।
अब बिहार के चुनाव का असर देखिए कि कांग्रेस के चिर प्रतीक्षारत अध्यक्ष राहुल गांधी ने घोषणा की है कि वे महू से बाबा साहब की 125 वीं जयंती के कार्यक्रम की शुरुआत करेंगे। महू बाबा साहब का जन्मस्थान है। कांग्रेस सारे देश में 125 वीं जन्म जयंती के कार्यक्रम आयोजित कर रही है। वह अब सत्ता में नहीं है और राज्यों की सत्ता में भी उसकी बेहद कमजोर उपस्थिति है। फिर भी राहुल गांधी ने जो एक नया तेवर अख्तियार किया है, उस कारण कांग्रेस में सुगबुगाहट जागने लगी है। बिहार के संदर्भ में हर नई राजनीतिक लहर पर मोदी पार्टी की नजर है। वह केंद्रीय सत्ता में मजबूती से काबिज है और राज्यों में भी उसकी मजबूत उपस्थिति है। वह हर तरह से इस हाल में है कि बिहार के चुनाव पर निर्णायक असर डाल सके। बस, एक ही कमी है कि उसके इतिहास में भी और उसके वर्तमान में भी कोई भी ऐसी सख्सियत नहीं है कि जिसका कोई अपना जनाधार हो। जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी का सम्मिलित इतिहास देखें हम तो श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेई, तीन राष्ट्रीय नेता मिलते हैं जो तीनों हवा बनाते थे, जनाधार नहीं रखते थे। नरेंद्र मोदी जब इस श्रेणी के चौथे नेता बनने चले तो उनके सामने भी समस्या यही खड़ी हुई कि उनका अपना जनाधार क्या है? वे जब तक मैं साढ़े छह करोड़ गुजरातियों का रखवाला हूं वाला जुमला बोलते रहे, बात जमती थी क्योंकि लंबे समय तक गुजरात के करिशमाई मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने अपनी मार्केटिंग की व करवाई थी। लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिष्ठित होने के लिए किसी पक्के जनाधार की जरूरत थी। अपना जनाधार न हो तो किसी जनाधार वाले नेता को अपना बनाने की जरूरत थी। इसलिए सबसे पहले सरदार पटेल को उन्होंने हाथ में लिया लेकिन उन्हें सीमित कर दिया गुजरात में गुजराती बना कर! देश सरदार को अपना मानता है, मोदी उन्हें गुजरात की अस्मिता का प्रतीक मानते हैं, तो चुनावी समीकरण ठीक बैठता नहीं है।
इसलिए प्रधानमंत्री बनते ही सरदार को गुजरात के हवाले कर उन्होंने महात्मा गांधी को साथ ले लिया। महात्मा गांधी को हाथ में लेने के बाद उनकी समझ में आया कि यह खतरनाक आदमी है। इसका नाम लो तो यह काम करवाने लगता है; और उसमें अपनी सारी खोट भी सामने आने लगती है। सफाई से गांधी को जोड़ा तो उसने झाड़ू पकड़ने पर मजबूर कर दिया। वह भी पकड़ ली तो वह कहने लगा कि इसे छोड़ो मत, हमेशा लिए रहो। मुसीबत! इसलिए उन्हें श्रद्धापूर्वक एक तरफ कर, सुभाषचंद्र बोस को उभारा कि कांग्रेस ने और जवाहरलाल नेहरू ने हमारे नेताजी के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया, उनकी मौत का राज छिपाया, उनका खजाना गायब करवाया आदि-आदि। लेकिन बात कुछ वैसा रंग नहीं पकड़ पाई कि जिससे चुनावी रंग गाढ़ा होता है। इसलिए उन्हें पश्चिम बंगाल के लिए रख लिया गया और बिहार के लिए बाबा साहब का चुनाव किया गया।
अब मोदी पार्टी बाबा साहब मय होने जा रही है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजा घोषणा बताती है। यह नया चुनाव-प्रतीक है जो आगे किया जा रहा है ताकि कांग्रेस को भी और नीतीश-लालू के गठबंधन को भी शह दे कर मात दी जा सके। राजधानी दिल्ली में 192 करोड़ रुपयों की लागत से डॉ. भीमराव आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर की आधारशिला रखने जा रहे हैं प्रधानमंत्री जिसके बारे में कहा गया है कि विज्ञान भवन का विकल्प बनेगा। बाबा साहब से जुड़े तीन प्रतीक-स्थलों का राष्ट्रीयकरण किया जा रहा है – नई दिल्ली का 26 अलीपुर रोड स्थित बह बंगला जहां आंबेडकर का देहावसान हुआ था, वहां 100 करोड़ की लागत से भव्य स्मारक बन रहा है; 1921-22 में, पढ़ाई के दौरान लंदन के जिस घर में वे रहे थे, उसे खरीद लिया गया है और वहां उनका स्मारक बनाया जा रहा है। उनकी जन्मस्थली महू से भले राहुल अपना दलित कार्ड चलने जा रहे हों, सरकार तो उनकी नहीं है, सो महू में डॉ. आंबेडकर इंस्टीट्यूट बन रहा है जिसे मध्यप्रदेश सरकार राज्य विश्वविद्यालय का दर्जा देगी। मुंबई में चैत्यभूमि को भी और उसके पास बन रही नव आंबेडकर स्मृति संस्थान को भी भव्यतर बनाया जा रहा है। सामाजिक स्तर पर विवाह, भोजन आदि समरसता के कई कार्यक्रम आने वाले दिनों में आपको दिखाई व सुनाई देंगे। सबसे अधिक ध्यान देने की बात यह है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, जो हमेशा इस बात की सावधानी रखता रहा है कि कोई उसका राजनीतिक इस्तेमाल न कर ले, वह अब खुल कर मैदान में आ खड़ा हुआ है कि बिहार की बिसात पर मोदी पार्टी की हार न हो। इसलिए उसने अपने मुखपत्र पांचजन्य का आंबेडकर विशेषांक छापा और लाखों प्रतियों का वितरण करवाया। उसके संपादक हितेश शंकर ने लिखा है, अस्पृश्यता को लेकर हेडगेवार और आंबेडकर के विचार एक थे। एक ही कालखंड के दो मनीषियों की पीड़ा सामाजिक विषयों पर एक जैसी थी। संघ हमेशा तोड़ने के बजाए जोड़ने की सोच रखता है, इसलिए पाञ्चजन्य में भी वे ही चीजें छापी गई हैं जो सकारात्मक हैं। लेकिन सारी पत्रिका का एक लेख भी यह सच बयान नहीं करता है कि यदि दोनों मनीषियों की जातीय चिंता एक ही थी तो वे कभी एक साथ आए क्यों नहीं? यह भी कि बाबा साहब के जाने के इतने वर्षों बाद, इतनी शिद्दत से उनके साथ नाता जोड़ने की कोशिश क्यों हो रही है? पहले कभी क्यों नहीं की गई? और अंतिम यह कि बिहार का चुनाव सर पर न होता, और लोकसभा की जीत के बाद की यह राजनीतिक फिसलन यदि न होने लगी होती तो भी क्या आंबेडकर इतने ही प्रिय होते? जवाब बिहार की गली-गली में पूछा जाएगा; और इन्हीं गलियों में तो राजनीति की किस्मत की कुंडली लिखी और मिटाई जाती है। देखिए, राहुल और मोदी कितना लिखते हैं और मतदाता कितना मिटाता है।cutsy from haribhoomi
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