बिहार की राजनीति और जातिवाद का इतिहास

ranvir-senaरतन लाल

“मैं भी अपनी पोती के लिए लड़का खोज रहा हूँ. कोई सीधे मुंह बात ही नहीं करता. पहले समाज में ऐसे लोग थे, जिन्होंने मुफ्त लड़के देकर, मेरा उपकार किया था. मगर अब वे लोग समाज से लुप्त हो गए हैं. नै पीढ़ी के भूमिहार केवल अर्थ-पिशाच हैं. मैं भी जात से बाहर जाने को तैयार हूँ. दूसरा विकल्प यह कि लड़की क्वाँरी रह जाय. और क्या कर सकता हूँ? पहले लोग सोचते थे दिनकर कंगाल नहीं है, उसके पास कीर्ति है, उसे शरण मिलनी चाहिए. अब ऐसी बात कोई नहीं सोचता. ऐसी भ्रष्ट जाति से बाहर निकलने का रास्ता मिले तो इससे अच्छा और क्या होगा. मगर कोई रास्ता तो मिले. 9 लड़कियों की शादी कर चुका हूँ. रामसेवक की तीन लड़कियां और हैं. कम से कम दो की शादी करके मरना चाहता हूँ. मुझे लगता है, भगवान ने मुझे 11 लड़कियों के ब्याह के लिए भेजा था. वह काम पूरा हो जाए तो समझूँ मेरे अवतार का कार्य पूरा हो गया….असल में भूमिहार ही नहीं सारा प्रान्त सड़ गया है”  दिनकर   बिहार में राजनीतिक सरगर्मी तेज़ है. सितम्बर-अक्टूबर में विधान-सभा चुनाव होना है. वैसे तो भारत में किसी भी प्रान्त के चुनाव में एक महत्वपूर्ण विषय जातीय समीकरण होता है और यदि बिहार में चुनाव हो तो यह सरगर्मी कुछ ज्यादा ही तेज़ हो जाता है. लेकिन सबसे मज़ेदार बात यह है कि जातिवाद की राजनीति करने को तोहमत सिर्फ दलित और पिछड़ों पर ही थोप दिया जाता है और बाकी सवर्ण जातियों को सर्वग्राही, सर्वमान्य, और पूरे समाज का नेता मान लिया जाता है. ‘जातिवाद’ और ‘जातिवाद’ – सवर्णवाद और पिछड़ा या दलितवाद – में अन्तर है और यह दोनों ‘वाद’ एक दूसरे के विपरीत भी हैं.

इस सन्दर्भ में पिछ्ले साठ वर्षों से ज्यादा तक के राजनीतिक विरासत की सामाजिक समीक्षा जरुरी है. श्री कृष्ण सिंह आज़ाद बिहार के पहले मुख्यमंत्री थे. उनके सम्मान में एक पुस्तक ‘श्री कृष्ण सिंह स्मृति ग्रन्थ’ (विचार और दर्शन) लिखा गया, जो राज्य अभिलेखागार, पटना से प्रकाशित है. यह पुस्तक श्री कृष्ण सिंह पर लिखे गए लेखों का संकलन है और कुल 131 लेख संकलित हैं. इस संकलन में एक लेख, प्रसिद्द समाजशास्त्री प्रो. हेतुकर झा का है – डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के समय के उभरे प्रश्न: एक समाजशास्त्रीय अवलोकन. इस लेख में आज़ादी के तुरंत बाद के उभरे कुछ राजनीतिक प्रसंग की चर्चा है. प्रो. झा लिखते हैं, “डॉ. कृष्णसिंह के प्रसंग विभिन्न लेखों, उनके भाषणों, उनके कार्यकाल के प्रसंग कतिपय विशिष्ट लोगों के संस्मरणों के अवलोकन से तो यही बात झलकती है कि उनके हृदय में जातिवाद/सम्प्रदायवाद जैसी भावनाओं के लिए कोई स्थान नही था. यह मानने में मुझे कोई हिचक नहीं है उनकी मनोवृति उदार, जात-पाँत की उलझन से ऊपर थी. फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि जातिवाद का जाल इस तरह फ़ैल रहा था कि उनकी छवि भी अछूती नहीं रह पाई” (पृष्ठ. 99).

इस प्रसंग में प्रो. झा ने दो प्रसंगों का जिक्र किया है: प्रथम, “स्व. सरदार हरिहर प्रसाद सिंह, जो स्वयं स्वतंत्रता संग्राम के दिनों से बहुत आदरणीय नेता थे, श्रीबाबू के प्रसंग अपने संमरणात्मक लेख में एक घटना का जिक्र किये. उनके अनुसार, “1957 के (असेंबली) चुनाव में सत्यनारायण सिंह और महेश बाबू ने मेरे नाम का विरोध किया, जिसके परिणामस्वरूप मुझे उस चुनाव में कांग्रेस का टिकट नहीं मिल सका. इससे मैं कुछ खिन्न था ….राजनीतिक स्थिति को देखकर मुझे भी तकलीफ हुई. उनके मरने के कुछ पहले मैंने एक दिन कुछ दुखी होकर कह दिया – ‘मरने के वक़्त आप भूमिहार हो गये और मैं राजपूत !…सुनते ही श्रीबाबू रों पड़े.” प्रो. झा लिखते हैं, “सरदार हरिहर सिंह जिस क्षण का चित्र प्रस्तुत किये उससे तो स्पष्ट होता है कि जातिवादी ताकत जिस तरह डॉ. श्रीकृष्ण सिंह को वशीभूत कर रही थी उससे क्षुब्ध होकर उनके अन्तःकरण की वेदना अश्रुधार में टपक पड़ी.”

दूसरी घटना है 1959 ई. का, जब सर्वोदय नेता जयप्रकाश नारायण कृष्ण बल्लभ सहाय का पक्ष लेते हुए डॉ. श्रीकृष्ण सिंह पर जातिवाद का आरोप लगाये कि ये अपनी जाति के महेश प्रसाद सिंह को ही राजनीति में उच्च सत्ता दिलाने में तत्पर थे. इस प्रसंग तत्कालीन बिहार के अंग्रेज़ी दैनिक द सर्चलाईट (पटना, 6.8.1959), जिसमे जयप्रकाश नारायण का लेख छपा था, और द सर्चलाईट (पटना, 9.9.1959), जिसमे श्रीबाबू का उत्तर छपा था, का विवरण आर. एन. त्रिवेदी अपने लेख में किये हैं. प्रो. झा लिखते है, “आरोप-प्रत्यारोप का विश्लेषण तो यहां नहीं कर सकते – वैसे प्रत्यक्षतः यदि श्रीबाबू महेश प्रसाद सिंह के पक्षधर थे तो जयप्रकाश नारायण भी तो कृष्ण बल्लभ के ही पक्ष में खड़े हुए थे. इन घटनाओं से मुख्य बात यही प्रतीत होता है कि न कि मात्र श्रीबाबू बल्कि और भी जो शीर्षस्थ नेता थे वे जाने या अनजाने, कुछ खीझकर तो कुछ जातिवादी मायाजाल में फँसकर राजनीति में जातिवादी हमले को सामूहिक ढंग से रोकने का प्रयास नहीं कर पाये, इसके लिए कोई मूवमेंट नहीं हो पाया. सामूहिक तौर पर प्रायः कोई चिन्तन भी नहीं हो पाया कि किस तरीके से जातिवाद/संप्रदायवाद राजनीतिक कार्यक्षेत्र से दूर रहे.”

यहां जिन नेतागण और बिहार और देश के राजनीतिक कर्णधारों की चर्चा की गई है, उसमे कोई भी दलित और पिछड़ा नेता नहीं है. स्वभावतः प्रश्न उठता है कि आज़ादी के तुरंत बाद ही कौन से ये नेता थे या शक्तियां थीं, जो राजनीति के क्षेत्र में जातिवाद को प्रश्रय और बढ़ावा दे रहे थे. उस समय के ही राजनीतिक संस्कृति को ही देखकर ऐसा लगता है सत्ता प्राप्ति के मोहवश उस समय के तथाकथित उच्च जाति के नेतागण जाति के नाम पर धुर्वीकरण करने के महारथी हो गए थे. यह बात जरुर है कि श्रीबाबू ने अपने अंतिम दिनों में अपने मित्र फजलुर रहमान को हिदायत दिया था, “…मेरे मरने के बाद अपनी जुबान असेंबली में कभी नहीं खोलना. असेंबली में ऐसे लोग आयेंगे जो तुम्हारी जुबान काट लेंगे. असेंबली में कोई मर्यादा बाकी नहीं रहेगी. बहसों में असभ्य और असंसदीय भाषा चलेगी. आपस में मेंबर एक दूसरे पर जूता फेकेंगे…” निश्चित रूप से श्रीबाबू दूरदर्शी थे. लेकिन यक्ष प्रश्न यह है जब वे इतने दूरदर्शी थे तो इस स्थिति को रोकने की जिम्मेदारी किसकी थी? बिहार को एक सच्चे प्रजातान्त्रिक समाज की ओर ले जाने की जिम्मेदारी किसकी थी? क्या श्रीबाबू महाभारत के भीष्म पितामह की तरह सब कुछ जानते हुए (द्रौपदी का चीरहरण और हस्तिनापुर की बर्बादी), बिहार को बर्बाद हो जाने दे रहे थे?

ऐसा प्रतीत होता है कि आज़ादी के बाद के पहले दशक से ही बिहार के माननीय नेतागण अंततः मात्र जाति नेता की छवि से घिर गए और उससे निकलने का कभी सचेत प्रयास भी नहीं किया. बड़ी-बड़ी पार्टियों के नेता होने के बावजूद वे अपनी जाति के ही नेता बन कर रह गये. अगर वाकई वे सभी सामाजिक वर्गों के प्रतिनिधित्व का ख्याल रखते तो इतने सारी पार्टियों की जरुरत ही नहीं पड़ती. और अब जब वंचित जमात अपने सांवैधानिक अधिकारों की मांग करता है, तो उन्ही के उत्तराधिकारियों को लगता है कि जातिवाद बढ़ गया है.

बिहार की राजनीति और जातिवाद का इतिहास में अनुग्रह नारायण सिंह और दिनकर को पढ़ना भी प्रासंगिक होगा. अनुग्रह नारायण सिंह अपने संस्मरण में लिखते हैं, “सन  1952-56 के प्रशासनिक जीवन में मैंने अनुभव किया कि हमारे राज्य में महत्वाकांक्षियों का एक ऐसा वर्ग विकसित होता जा रहा है, जो जातीयता को अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति का सुलभ साधन मानकर इसी की पृष्ठभूमि पर समाज में एक ऐसे अजनतांत्रिक वर्ग का सृजन करता जा रहा है, जिसे समाजवादी बुर्जुआ या अभिजात वर्ग कहा करते हैं. और, जो राष्ट्रीयता के लिए घातक होने के साथ-साथ राज्य के राजनीतिक या प्रशासनिक – दोनों ही क्षेत्रों में विषवृक्ष के रूप में विकराल रूप से पनपता जा रहा है. ऐसे महत्वाकांक्षियों के वर्ग में परस्पर विरोधी विचार-धाराओं के लोग भी प्रविष्ट होकर अपना-अपना उल्लू सीधा करने को तुल गये हैं. मोटे तौर पर यह वर्ग दो उपगुटों में विभक्त पाया जाता है. प्रधान गुट उन यथाकथित जननायकों तथा जन सेवकों द्वारा संगठित हो चला है, जो राष्ट्रीयता की आड़ में जाति-रूपी बछिया का पूँछ पकड़कर बैतरनी पर उतरने का मंसूबा गाँठ रहे हैं. दूसरे गुट में ऐसे राजकर्मचारी तथा पदाधिकारी आते हैं, जो जननायकों की जातीयता को उभाड़कर अपनी स्वार्थ-सिद्धि में ही दिन-रात परेशान देखे जाते हैं. और इन दोनों की साठ-गाँठ दिन-प्रतिदिन भयावह रूप धारण कराती जा रही है” (मेरे संस्मरण, पृष्ठ.358).

सत्ता के उत्तराधिकार के बारे में अनुग्रह बाबू लिखते हैं, “सन 1952 में श्री महेश प्रसाद सिंह के मंत्रिमंडल में प्रविष्ट होते ही मुख्यमंत्रित्व का उत्तराधिकारी बनने का स्वप्न देखनेवाले श्री कृष्णबल्लभ सहाय को स्वभावतः यह आशंका सताने लगी कि उनके उत्तराधिकारी में अब अवश्य ही आंच आवेगी. इधर श्री महेश भी चुप बैठे नहीं रहे. के.बी (कृष्णबल्लभ) को श्री बाबू की नज़रों से गिराने की उनकी पैतरेबाज़ी दिन-दहाड़े चलती रही. साथ ही, सर्वश्री शारंगधर सिंह, श्यामाप्रसाद सिंह, रामविनोद सिंह, सरदार हरिहर सिंह, जानकीनंदन सिंह आदि श्रीबाबू के अनन्य प्रिय-पात्रों को भी उनके विश्वास परिधि से खदेड़कर इनके स्थान पर सर्वश्री सियाराम सिंह, ललितेश्वर शाही, धनराज शर्मा आदि अपने स्वजातीय महत्वाकांक्षियों को प्रतिष्ठित कर देने का उनका उपक्रम भी चलता रहा. और, चूँकि श्री रामचरित्र सिंह स्वजातीय होते हुए भी श्री महेश की जातिवादी प्रवृति के प्रबल प्रतिरोधक पाये गये, इसलिए इन्हें गिराने के लिए राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष श्री नंदकुमार सिंह को हथकंडा बनाया गया”(358). इन पंक्तियों में अनुग्रह सिंह ने बड़े स्पष्ट शब्दों में बिहार में हो रहे जातीय गुटबंदी को रेखांकित किया है और बतलाया है कि श्रीबाबू के प्रिय राजपूत नेताओं को भी उनके पास से खदेड़ दिया गया और उनकी कोटरी में सिर्फ भूमिहार नेताओं को घुसेड़ दिया गया. लगता है श्रीबाबू अपने स्वजातीय नेताओं की दबंगई के समक्ष समर्पण कर चुके थे, वैसे ही जैसे भीष्म पितामह कौरवों के सामने समर्पण कर चुके थे.

अब जरा 1957 के चुनाव के समय टिकट बटवारे के लिए हुए गुटबंदी और कलह पर अनुग्रह बाबू के विचार को देखिए, “सर्वश्री रामचरित्र सिंह, रामबिनोद सिंह, सरदार हरिहर सिंह, जानकीनंदन सिंह आदि कितने तपे-तपाये श्रीबाबू के प्रियपात्रों को टिकट नहीं मिला, जिसकी प्रतिक्रिया उनलोगों पर ऐसी पड़ी कि कांग्रेस से अलग होकर जन-कांग्रेस तक की प्रतिष्ठा करने की उनलोगों ने कोशिश की. और, जब चुनाव का समय आया, तब महेश-कृष्णबल्लभ द्वन्द खुलकर खेलने लगा. फलस्वरूप दोनों के दोनों चुनाव हार गये. लेकिन कांग्रेस के पुराने पुण्य के प्रताप से विधान-सभा में प्रबल बहुमत से कांग्रेसी सदस्य निर्वाचित हुए ….पश्चात् कांग्रेस दल के नेता के चुनाव की समस्या सामने आई. श्री महेश तथा श्री कृष्णबल्लभ इसी चुनाव की आड़ में अपनी-अपनी ताकत आजमाइश करने लगे. और, इस द्वन्द में श्री कृष्णबल्लभ ने मेरा सहारा चाहा. इच्छा नहीं रहने पर भी मुझे हामी भरने को लचर कर दिया गया. लेकिन इस द्वन्द में महेश बाबू की गोटी लाल रही, कृष्ण बल्लभ बाबू दाँव हार गये….विधान-सभा के लिए प्रत्याशियों के चयन से लेकर कांग्रेस-विधायक-दल के नेता के निर्वाचन तक जो-जो कुत्सित तथा अमर्यादित व्यापार हुए, उनके संस्मरण बड़े ही दुखद हैं” (359).

इस सन्दर्भ में दिनकर को पढ़ना भी प्रासंगिक होगा. आज़ादी से काफी पहले, 12 सितम्बर 1939, वे लिखते हैं, “…बिहार में कायस्थ, राजपूत और भूमिहार की फीलिंग बड़े जोरों पर चल रही है और साहित्य क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं बच रहा है. इसका दुःख है. इस फीलिंग की कुछ डंक मुझे भी लग रही है अन्यथा मैं अपने जीवन को कुछ दूसरा रूप देने में समर्थ हो सकता था..” ( देखें, दिनकर रचनावली खंड, -14, p. 136)

आज़ादी के तक़रीबन तीन दशक बाद दिनकर का विचार अत्यंत विचारणीय है. वे अपनी डायरी में लिखते हैं, “सरदार पटेल की 96वीं जयंती का सभापतित्व करने को साहित्य सम्मलेन-भवन गया. मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री भी आए हुए थे. प्रायः सभी वक्ता एक ही जाति के थे. अधिक श्रोता भी उसी जाति के थे. सोचकर हंसी आती है कि स्वामी सहजानंद और बाबू श्रीकृष्ण सिंह भूमिहार बनकर जी रहे हैं. अनुग्रह बाबू के नामलेवा राजपूत हैं और सरदार पटेल की जयंती बिहार में कुर्मी बंधु मनाते हैं. बिहार गर्त में गिरता जा रहा है. कहाँ जाकर रुकेगा इसका पता नहीं चलता” ( दिनकर की डायरी, p. 245, 31 अक्टूबर 1971).

अपने स्वजातीय बंधुओं से ही हुए उत्पीड़न की व्यथा वे इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, “मैं भी अपनी पोती के लिए लड़का खोज रहा हूँ. कोई सीधे मुंह बात ही नहीं करता. पहले समाज में ऐसे लोग थे, जिन्होंने मुफ्त लड़के देकर, मेरा उपकार किया था. मगर अब वे लोग समाज से लुप्त हो गए हैं. नै पीढ़ी के भूमिहार केवल अर्थ-पिशाच हैं. मैं भी जात से बाहर जाने को तैयार हूँ. दूसरा विकल्प यह कि लड़की क्वाँरी रह जाय. और क्या कर सकता हूँ? पहले लोग सोचते थे दिनकर कंगाल नहीं है, उसके पास कीर्ति है, उसे शरण मिलनी चाहिए. अब ऐसी बात कोई नहीं सोचता. ऐसी भ्रष्ट जाति से बाहर निकलने का रास्ता मिले तो इससे अच्छा और क्या होगा. मगर कोई रास्ता तो मिले. 9 लड़कियों की शादी कर चुका हूँ. रामसेवक की तीन लड़कियां और हैं. कम से कम दो की शादी करके मरना चाहता हूँ. मुझे लगता है, भगवान ने मुझे 11 लड़कियों के ब्याह के लिए भेजा था. वह काम पूरा हो जाए तो समझूँ मेरे अवतार का कार्य पूरा हो गया….असल में भूमिहार ही नहीं सारा प्रान्त सड़ गया है” देखें, दिनकर रचनावली खंड, -14, p. 50).

अब यहां ध्यान देने की जरुरत है कि देश की आज़ादी की लड़ाई सभी वर्गों के लोगों ने लड़ी थी और कुर्बानियां भी दी थीं. लेकिन आज़ादी के शीघ्र बाद ही सत्ता की हिस्सेदारी से राजपूतों, ब्राह्मणों, कायस्थों तक को खदेड़ दिया गया और सिर्फ एक जाति विशेष (भूमिहार) का ही वर्चस्व बना रहा, दलित और पिछड़ों की कौन कहे? बिहार को सड़ने के रास्ते पर कौन ले गया? बिहार की राजनीति में जातिवाद को जन्म किसने दिया? क्या इतिहास से यह सवाल पूछना लाजिमी नहीं है? क्या जातिवादी राजनीति और उसके पोषण के लिए कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? यक़ीनन नहीं. आज़ादी के बाद भी जिस तरीके से बहुसंख्यक जनता, विशेष रूप से दलितों पर जो अमानवीय अत्याचार हुए, उसकी आवाज़ उठाना या उनके हकों की वकालत करना जातिवाद था? आज जिस तरह से राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सत्ता का संकेन्द्रन कुछ व्यक्तियों एवं जातियों में हो रहा है, यह प्रश्न आज भी प्रासंगिक है. bathe

                               यह रही है बिहार की सवर्ण सामंती मानसिकता.

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