पूरबिया-पुराण: ये ‘पूरबिया’ कौन हैं भाई?
बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए हुए प्रवासियों को दिल्ली में ‘पूरबिया’ कहते हैं. मुंबई में यही लोग आमतौर से ‘भैया’ कहलाते हैं. दिल्ली और मुंबई दोनों जगहों पर पूर्वांचल के नाम पर कई संगठन हैं और इस नाम पर राजनीति बदस्तुर जारी है. मुंबई के बारे में विशेष जानकारी नहीं है, लेकिन दिल्ली में पिछ्ले चौबीस वर्षों से हूँ, इसलिए आँखों देखा हाल प्रस्तुत है:
बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में सामंतों के उत्पीड़न, शोषण और दमन के चलते सबसे पहले खेतिहर मजदूर, गरीब और दलित-पिछड़ों का पलायन हुआ और अस्सी के दशक से बड़े पैमाने पर छात्रों का पलायन. दिल्ली में हम दो अवसरों पर ‘पूर्वांचलवाद’ का नारा जबरदस्त तरीके से देखते हैं: छठ त्योहार और किसी भी चुनाव में – छात्र संघ, ट्रेड यूनियनों, म्युनिसिपल कारपोरेशन, विधान सभा से लेकर लोकसभा तक के चुनाव तक! कई बड़े नाम भी उछलते हैं; महाबल मिश्रा, मनोज तिवारी, कीर्ति आजाद इत्यादि| पिछ्ले तीन दशकों में यह ‘‘पूर्वांचलवाद’ अपने कई अनुभवों से गुजरा है: ‘ओए बिहारी’ से लेकर ‘बिहारी बाबू’ और अब तो कई लोग पूरबिया मुख्यमंत्री तक की बात कर लेते हैं और संभवतः कुछ राजनीतिज्ञ सपने भी संजो बैठे होगें| छठ के अवसर पर तो हर पार्टी घाट बनवाने से लेकर साफ-सफाई और पोस्टर बैनर लगाए देखे जा सकते हैं| दिल्ली के कार्यालय, स्कूल, कॉलेज सभी जगह छुट्टी-सा ही माहौल रहता है| हर पार्टी जनाधार बढ़ाने का यह अच्छा अवसर समझती है| पिछले साल विधान
सभा चुनाव में दिल्ली के कई नेता रेडियो पर छठ की बधाई देते दिखे| छठ से लेकर चुनाव तक भोजपुरी के कई रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम देखे जा सकते हैं| अरबिंद के रोहिणी वाले राजनीतिक सभा में एक भोजपुरी कार्यक्रम का आनंद लेने का अवसर मुझे भी मिला है, जहाँ भोजपुरी लोक-गायक गुड्डू रंगीला ने जबरदस्त समां बांध रक्खा था|
तीन दशक पहले तक ‘बिहारी’ शब्द ‘अपमानसूचक’ अर्थ में लिया जाता था| बस की सफ़र से लेकर गली मुहल्लों, विश्वविद्यालय तमाम जगहों पर ‘ओए बिहारी’ शब्द का प्रयोग देखा जा सकता था और कई बार झगड़े भी होते थे | मैंने अपने छात्र जीवन में दिल्ली विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर ऑफिस के पीछे (बाबा के चाय दुकान और पान वाले के पास) बिहार निवासी एक रिक्शे वाले को दिल्ली विश्वविद्यालय में काम करने वाले एक सेक्शन ऑफिसर से लड़ते देखा है| रिक्शा वाला लहू लूहान था, लेकिन वह ऑफिसर का कालर पकड़े हुए था| मेरे पूछे जाने पर कि यह लड़ाई क्यूँ हो रही है, रिक्शे वाले ने बताया कि अगर यह पैसा नहीं देता तो कोई बात
नहीं थी, लेकिन यह मुझे ‘बिहारी’ कह कर गाली क्यूँ दे रहा था? बात पुलिस तक पहुँच गई, काफी बीचबचाव करने पर बात सुलझी| यह बात 1997 की है| इसी तरह की कई घटनायें दिल्ली में अमूमन देखी जाती रही है| दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों और होस्टलों में बिहारी और जाट के आधार पर कई बार झगड़े भी देखने को मिलते थे| लेकिन पिछ्ले कुछ वर्षों से दिल्ली की सोंच में बदलाव देखा जा सकता है|
इसके कई कारण हैं:
(1) एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली की आबादी में तक़रीबन 35 प्रतिशत हिस्सा बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए हुए लोगों का है- जो झुग्गियों, गली मोहल्लों, मध्यवर्गीय अपार्टमेंट से लेकर पॉश कॉलोनियों- हर जगह निवास करता है| इसलिए समय के साथ सांस्कृतिक सम्मिश्रण भी हुआ है, जो छठ, लोहरी आदि त्योहारों के अवसर पर आसानी से महसूस किया जा सकता है|
(2) इस बड़ी आबादी में से उभरता हुआ विशाल
मध्यम वर्ग भी है, जो विश्वविद्यालय और कालेजों के स्टाफ रूम, तीस हजारी कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट के परिसरों, प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, कॉरपोरेट ऑफिस, हर जगह बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग अंग्रेज़ी से लेकर भोजपुरी, मैथिली, मगही इत्यादि बोलते नज़र आ जायेंगे| यही नहीं, रवीश कुमार जैसे प्रतिभाशाली पत्रकार अपने प्राइम टाइम वाले प्रोग्राम में आत्मविश्वास से लबरेज़ भोजपुरी शब्दों का प्रयोग करते और बोलते दिख जाते हैं| बिहार से जुड़ी कई किस्से, कहावते और अपने अनुभव भी सुनते हैं| यही नहीं, वे कहते भी हैं कि मैं गोविन्दगंज, मोतिहारी, बिहार का रहने वाला हूँ और इसमे उन्हें कोई हिचक भी नहीं होती है| सरकारी महकमो से लेकर कॉरपोरेट जगत तक ये ‘पूरबिये’ बॉस के रूप में भी नज़र आते हैं|
(3) दिल्ली के जन जीवन को सुगम बनाने और कल-कारखानों को चलने में भी पूर्वांचल के रिक्शे वाले, पटड़ी वाले और मजदूरों की महत्वपूर्ण भूमिका है| निःसंदेह ये ‘पूर्वांचली’ दिल्ली के जन जीवन, सड़क से लेकर संसद तक के अविभाज्य अंग बन चुके हैं| इसलिए किसी भी तरह का तनाव – बिहारी या पूर्वांचली नाम पर – असहज स्थिति उत्पन्न कर सकता है, जो दिल्ली के जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर सकता है| एक जीवंत समाज की जरुरत भी होती है कि वह सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक ‘सहिष्णुता’ को स्वीकार करे| शायद कुछ हद तक – कमोवेश पूर्वांचली नाम पर – दिल्ली यह करता हुआ दिख भी रहा है| लेकिन कॉरपोरेट जगत से लेकर विश्वविद्यालय, प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, और खासकर म्युनिसिपल कारपोरेशन के चुनाव से लेकर विधान सभा और लोक सभा में सत्ता की हिस्सेदारी मांगने वाले और सत्ता का भोग करने वाले ये ‘पूर्वांचली’ कौन हैं? इसकी सामाजिक समीक्षा जरुरी है.
‘पूर्वांचल’ के नाम पर राजनीति का सवाल है, वह मूलतः ‘सवर्ण पूर्वांचलवाद’ है. दिल्ली में ‘पूर्वांचल’ की राजनीति के इस खेल में
पूर्वांचल के दलित पिछड़े और अल्पसंख्यक नदारद हैं. आम तौर पर ये पूर्वांचली नेता उसी सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं, जो 90 के दशक के पहले बिहार में दलितों, पिछड़ों, और अल्पसंख्यकों का शोषण, दमन और उपयोग करते थे. जिस नेतृत्व को बिहार के दलितों, पिछड़ों, और अल्पसंख्यकों ने 90 के दशक में बिहार में ही नकार दिया, वे दिल्ली में उनके नेतृत्व का दावा कर रहें हैं – दिल्ली में बिहार का ‘सवर्ण सामंती राज्य रिटर्न्स’! लेकिन ये सब नए वेश-भूषा, नई भाषा, नए रूपक, नए प्रतीक, नए विचार, सब नए अंदाज़ में – पुरानी बोतल में नई शराब!
दिल्ली की राजनीति में ‘पूर्वांचलवाद’ हमें 90 के दशक में दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से जन्मे पूर्वांचल की राजनीति की याद दिलाती है, जिसका जन्म मंडल कमीशन के विरोध में हुआ था. कई पूर्वांचली छात्र नेताओं को इस आन्दोलन ने जन्म दिया. ये सब पूर्वांचल के स्वघोषित नेता, सामाजिक न्याय विरोधी. दिल्ली विश्वविद्यालय के होस्टल, खासकर पोस्ट ग्रेजुएट होस्टल, इनके अड्डे थे और और बिहार से आए ‘सवर्ण बाबाओं’ ने सारे होस्टलों को अघोषित रूप से बांट रखा था. हर हॉस्टल एक ‘बाबा’ के अधीन होता था. हॉस्टल में प्रवेश पाने के लिए ‘बाबा’ का आशीर्वाद जरूरी था. ये बाबा लोग हॉस्टल के ‘समाजशात्री’ होते थे. हॉस्टल मिलने से पहले ही आपकी जाति वहां पहुँच जाती थी और अमूनन आपको कौन से हॉस्टल में प्रवेश मिलेगा, मिलेगा भी की नहीं, आमतौर पर आपकी जाति पर भी निर्भर करता था. यह एक खुला हुआ सच था, जिसे होस्टल के अधिकारी से लेकर विश्वविद्यालय के अधिकारी तक
जानते थे और कमोबेश इसमे शामिल भी थे. आरक्षण जैसे संवैधानिक प्रावधानों का भी खुल्लम-खुल्ला धज्जियां उड़ाई जाती थी और
अगर आरक्षण नहीं होता तो पूर्वांचल से ही आने वाले दलित छात्रों को ये ‘पूर्वांचली बाबा’ हॉस्टल में नहीं घुसने देते. आज भी दिल्ली विश्वविद्यालय में कमोबेश यही राजनीति चल रही है जहाँ एक खास ‘प्रजाति’ ने वर्चस्व बना रक्खा है और पूरी यूनिवर्सिटी त्राहिमाम है. हॉस्टल में जब हमारे संघर्ष चल रहे थे तब हमारे बहुत सारे साथी कहते थे कि यह तो ‘बिहारियों’ की लड़ाई है. लेकिन आज किसी भी ‘खन्ना साहेब’ ‘चड्डा साहेब’ ‘सहरावत’ या ‘अहलावत’ साहेब से पूछिए – सब कांप से जायेंगे इस इस खास प्रजाति का नाम मात्र सुनने से. बिहार और उत्तर प्रदेश के स्कूल, कॉलेज और जितने भी सार्वजानिक संस्थाओं का पतन हुआ है उसकी Social Auditing होनी चाहिए. कौन लोग थे जो इन संस्थानों को चला रहे थे. पहले बिहार और उत्तर प्रदेश बर्बाद किया और अब दिल्ली की बारी है. दिल्ली के सभी संस्थानों में जो ‘घुटना-टेक संस्कृति’ चाटुकारी, जातिवाद और क्षेत्रवाद की जो संस्कृति पनपी है – उसकी सामाजिक समीक्षा
जरुरी है. (लेखक रतन लाल दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)
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