मांझी के पीछे मोदी

jeetan ram majhiजिन तीन दलों ने जीतन राम मांझी को पद से हटाया है, उन सभी में वे पहले रह चुके हैं। कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू। लेकिन मांझी के झटके से वे दल भी उबर नहीं पाएंगे, जिनमें मांझी नहीं हैं। नाम मांझी है, लेकिन मंझधार में उन्होंने कितनों को फंसा रखा है। भाजपा को भी सोचना होगा कि मांझी का अभी साथ देकर सामाजिक न्याय का ढिंढोरा पीटा, तो छुटकारा पाने के वक्त क्या कहेंगे ? कहीं भाजपा की हालत भी नीतीश जैसी न हो जाए ? और सबसे बड़ा सवाल कि ये साथ कब तक और किस हद तक का है ?

सुभाष चन्द्र
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के पीछे शुरुआत में नीतीश कुमार थे, जिन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया। नौ महीना बीतते-बीतते एक नए मांझी का स्वरूप दिखने लगा, जिसके पीछे भाजपा थी। अचानक भाजपा मांझी का साथ क्यों देने लगी ? बिहार की जनता के मन में सबसे बड़ा सवाल यही था और आज भी है। बिहार में सुशील मोदी और केंद्र में नरेंद्र मोदी को ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी कि वो मांझी के पीछे आ गए ? क्या नीतीश को नेस्तोनाबूद करने के लिए और कोई विकल्प नहीं रह गया था।
असल में, बिहार की राजनीति को समझने-बूझने वाले भी आज सवाल कर रहे हैं कि यदि महादलित की चिंता थी, तब भाजपा ने मांझी के मुख्यमंत्री बनने पर स्वागत क्यों नहीं किया ? क्यों कहा कि ये कठपुतली मुख्यमंत्री है। हर दिन मांझी पर हमला हुआ। पर इस बीच मांझी कैसे भाजपा के करीब पहुंच गए। वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार कहते हैं कि इस पोलिटिक्स को आप केमिस्ट्री की क्लास में समझना चाहते हैं या कॉमर्स की ? क्या मांझी भाजपा बीजेपी की कठपुतली नहीं हैं? नीतीश अगर रिमोट के जरिये मांझी की सरकार चला रहे थे, तो क्या बीजेपी रिमोट के जरिये मांझी को नहीं चला रही थी।
असल में, कहा गया कि रामविलास पासवान के बाद मांझी का भाजपा की तरफ आना उसके सामाजिक आधार का विस्तार तो करेगा, लेकिन इससे मांझी या दलित राजनीति को क्या मिलेगा। क्या चुनाव बाद मुख्यमंत्री का पद मिलेगा? आखिर भाजपा ने खुद को इस खेल से खुलेआम अलग क्यों नहीं किया है। क्या वह अब भीतरघात की राजनीति भी करेगी। याद कीजिए, मांझी ने दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर कहा कि नीतीश का चेहरा एक्सपोज हो गया है। वे सत्ता के लालची हैं, लेकिन मांझी कैसे सत्ता के संन्यासी बने हुए हैं। सिर्फ इसलिए कि उनके पास एक ऐसा प्रतीक है, जिसकी काट किसी के पास नहीं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या भाजपा बिहार में यह सब सामाजिक न्याय के लिए कर रही है ? क्या बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा रामविलास पासवान को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाएगी, मांझी को बनाएगी ?
बहरहाल, बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटने पर मजबूर किए जाने के एक हफ्ते बाद जीतन राम मांझी ने अपनी नई राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा की। मांझी ने अपनी पार्टी का नाम ‘हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा’ (हम) रखा है। मांझी ने कहा कि वह इस मोर्च के जरिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमारे के असली चेहरे को पब्लिक के सामने लाएंगे। हमारी पार्टी नीतीश कुमार और जेडी(यू) को सीधी चुनौती देगी। हमलोगों ने कई लंबी बैठकों में विचार-विमर्श के बाद नई पार्टी हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा बनाने का फैसला किया है। इन बैठकों में हमने अपने समर्थकों, हमदर्दी रखने वालों और पूर्व मंत्रियों से विचार-विमर्श किया। इसके बाद हमलोग नई पार्टी बनाने के फैसले पर पहुंचे।
गौरतलब है कि मांझी और उनके समर्थक मंत्रियों, विधायकों को जेडी(यू) चीफ शरद यादव ने पार्टी से निकाल दिया था। इसके बाद से अटकलबाजी तेज थी कि अब मांझी की राजनीति किस करवट बैठेग ? मांझी के ज्यादातर समर्थक महादलित कैटिगरी से ताल्लुक रखते है। पार्टी लॉन्च करने के मौके पर मांझी ने कहा, ‘हम अपने समर्थकों के साथ नीतीश कुमार के असली चेहरे को बेनकाब करेंगे। मैंने 9 महीने के शासनकाल में महज 12 दिन काम किए हैं। ज्यादातर वक्त मौखिक संघर्ष में ही गुजरा। मैं भले 9 महीने तक सीएम की कुर्सी पर रहा, लेकिन असली काम मैंने 7 से 19 फरवरी के बीच महज 12 दिनों तक किए।
एक बार को लगा कि बिहार जाति की राजनीति के मिथक को तोड़ेगा। लेकिन आज दस साल बाद बिहार एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ा है जहां से जाति की राजनीति वाली सुरसा ने मुॅह खोल कर बिहार के विकास को अवरुद्ध कर हिंसा की भयावहता का विस्तार करने की कोशिश किया था। अफसोस! इस राजनीति को एक बार फिर हवा मिली है वह भी नीतिश कुमार के जरिए, हां यह अलग बात है कि इस बार उनकी मदद लालू यादव भी कर रहे हैं। लेकिन इन सबके बीच एक और चेहरा बिहार की राजनीति में उभर कर आ गया है वह कोई और नहीं बल्कि निर्वासित मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी हैं। जीतन राम मांझी की राजनीति ने कांशीराम के उस दौर की याद दिला दी है, जब वे सत्ता की मास्टर चाबी हासिल करने के लिए कभी हाथ मिलाते थे तो कभी झटक कर चल देते थे। सत्तर के दशक के आखिरी साल में कर्पूरी ठाकुर को किन लोगों ने अपमानित किया बिहार की राजनीति जानती है। कर्पूरी को कुर्सी से हटाकर एक दलित चेहरा खोजा गया, रामसुंदर दास का। जिन्हें सवर्ण नेताओं के समूह और जनसंघ ने समर्थन दिया था। दिक्कत यह है कि आप जीतन राम मांझी को सामाजिक न्याय के प्रतीक से अलग भी नहीं कर सकते, लेकिन उस सियासत से आंख भी बंद नहीं कर सकते जो दिल्ली से पटना तक में इस प्रतीक के नाम पर खेली जा रही है। नैतिकता और न्याय सियासत में कब पाखंड है और कब प्रतीक यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप नीतीश को पसंद करते हैं या नरेंद्र मोदी को या फिर मांझी को। दिलचस्प बात यह है कि जिन तीन दलों ने मांझी को पद से हटाया है उन सभी में वे पहले रह चुके हैं। कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू। लेकिन मांझी के झटके से वे दल भी उबर नहीं पाएंगे, जिनमें मांझी नहीं हैं। जेडीयू से बर्खास्त मांझी इस्तीफा नहीं दे रहे हैं और दूसरी तरफ विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद भी नीतीश कुमार शपथ नहीं ले पा रहे हैं। राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी की किस्मत ही कुछ ऐसी है कि वे जहां भी जाते हैं, यूपी विधानसभा की स्थिति पैदा हो जाती है। मांझी की त्रासदी यह है कि कोई इन्हें अपनी नाव का खेवनहार नहीं बनाना चाहता, बल्कि सब मांझी को नाव बनाकर खेवनहार बनना चाहते हैं। मांझी हैं कि तूफान का सहारा लेना चाहते हैं। यह मजा कब सजा में बदल जाएगी मांझी को अभी इसका एहसास शायद न हो आज नितीश का बहुमत मिल गया माझी का विश्वास मत, भाजपा की बैशाखी पर नही टिक सका। समुद्र में आया उफान बहुत कुछ दे दिया करता है लेकिन जो कुछ ले जाता है वह मांझी से बेहतर कोई नही समझ सकता। राजनीति में मौका प्रधान है भावना नहीं।





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