मन की माया और प्रेत का साया
बिहार में भूत पे्रत की साया से ग्रस्त होने वालों में महिलाओं की संख्या ज्यादा है। जब यही लोग दूसरे शहर में जाते हैं तो उनका भूत प्रेत का साया अपने आप उतर जाता है।
संजय स्वदेश
नवरात्री के दिनों में ओझा गुनियों के दिन फिर जाते हैं। वे तांत्रिक क्रियाएं करते हैं। इसी दौरान पूजा के नाम पर कथित रूप से भूत पे्रत के साये से ग्रस्त लोगों पूजा पाठ करवाने के नाम पर धन एठते हैं, लेकिन भूत छूमंतर होने का नाम नहीं लेता है। गोपालगंज जिले के लछवार में माता के दरबार में (और भी कई जगह) यहां भूत खेलते हैं। नवरात्र में यहां आने वाले लोगों का मेला लगा रहा। लछवार मंदिर में पूर्वी उत्तर प्रदेश, नेपाल और बिहार के अन्य जिलों से लोग आते हैं। कहने के लिए तो कुछ की बीमारी ठीक होती है तो कुछ वर्षों से यहां आ जा रहे हैं, लेकिन उनकी बीमारी ठीक होने का नाम नहीं ले रही है। यहां आने वाले अधिकर लोग वे हैं जो ओझागुनी से निराश हो चुके होते हैं। वहीं चिकित्सा विज्ञान का कहना है कि भूत खेलना पूरी तरह से मानसिक बीमारी है। इसी का ओझा खुब फायदा उठा रहे हैं। यदि कोई इसका विरोध करता है तो लोग कहते हैं कि यदि भूत पिसाच का साया नहीं रहता तो इन धामों पर इतनी भीड़ क्यों होती हैं और दूर-दूर से लोग क्यों आते हैं…पर कुतर्की यह नहीं समझते हैं कि यहां आने वाले सारे अंधविश्वासी लोगों की सं या जिले की कुल संख्या की एक प्रतिशत भी नहीं होती है। फिर तो यहां बिहार भर से लोग आते हैं। इस तरह देखा जाए तो यह सं या बहुत ही कम है और वहीं जब एक जगह इतनी कम संख्या जमा होती है तो भीड़ बढ़ जाती है। इससे दूसरे लोगों में विश्वास बढ़ जाता है। दरअसल भूत प्रेम पूरी तरह से मानसिक बीमारी है। इसका साया उन क्षेत्रों में और उन परिवारों में ज्यादा है तो जो अशिक्षित या कम पढ़े लिखे हैं। जो तर्क की कसौटी पर कुछ नहीं देखते हैं। बिहार में भूत पे्रत की साया से ग्रस्त होने वालों में महिलाओं की संख्या ज्यादा है। जब यही लोग दूसरे शहर में जाते हैं तो उनका भूत प्रेत का साया अपने आप उतर जाता है। अमूमन शहरों में तो इसका असर ही नहीं रहता है। विज्ञान यह मान चुका है कि भूत प्रेत खेलना या खेलाना यह एक तरह से मानसिक बीमारी है। बीमार में आम बीमारियों के इलाज के लिए समुचित व्यवस्था नहीं है। फिर मानसिक बीमारी के इलाज की बात ही छोड़ दीजिए। देश भर में मनोचिकित्सकों की भारी कमी है। बीमार में तो लोग यह मानने को ही तैयार नहीं होते हैं कि ऐसा भी कोई डॉक्टर होते हैं जो केवल मन के रोग को दूर करते हैं। जबकि मानसिक रोगों को दूर करने की पूरी की पूरी एक वैज्ञानिक तकनीक है।
यह भूत-प्रेत का ही असर है कि आए दिन किसी न किसी को डायन के नाम पर प्रताड़ित होना पड़ता है या फिर कही किसी की हत्या होने की बात सामने आती है। जब पूरी दुनिया विज्ञान के तकनीक के सहारे ढ़रों सुविधाओं का उपभोग कर रही है तो वहीं बिहार का एक समाज मन की बीमारी को भूत प्रेत के खौफ में दर दर की ठोकरे खा कर न केवल अपना धन व्यर्थ कर रहा है बल्कि अपना भविष्य भी चौपट कर रहा है। जिनके घर में कोई महिला या पुरुष कथित रूप से भूत प्रेत के साये से ग्रस्त है, यदि उनके सामने विज्ञान की बात करों तो वह सीधे कहते हैं कि जिन पर पड़ती है वही जानते हैं। उनका यह तर्क ठीक है। पर अपनी इस समस्या में पड़ने के बाद वे सच और झूठ को तर्क की कसौटी पर परखने की क्षमता खो देते हैं। जब वे अपने पूरे जीवन में विज्ञान के उत्पन्न दूसरे सुख सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं तो फिर वे मन की इस बीमारी में विज्ञान का सहारा क्यों नहीं लेते हैं। वे यह क्यों नहीं देखते हैं कि शहरों में इस तरह की बीमारी होती ही नहीं है। यदि होती भी है तो वहां डॉक्टरों से इसका समुचित इलाज करवाया जाता है न कि ओझा गुनी का चक्कर लगाया जाता है। सरकार को भी इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। बिहार में समाज के इस हालात को देख कर सरकारी अस्पतालों में मनोचिकित्सकों की तैनाती बेहद जरूरी है। जिनके परिवार के लोग भूत प्रेत की मनोविज्ञान में फंस कर ओझा गुनी के चक्कर काट रहे हैं, उन्हें समझाना व्यर्थ है। लेकिन उन्हें देखकर दूसरे लोग उसके चक्कर में पड़ रहे हैं तो यह समाज के उज्ज्वल भविष्य का संकेत भी नहीं है।
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